SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 706
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नम प्रकाश मा.मा.|| साधु मानो हो, तिसतें भी तुम्हारा विरुद्ध भया । जाते वह वाकों साधु माने है। बहुरि तुम। जाके यथार्थ आचरण मानौ हो, सो विचारकरि देखौ, वह भी यथार्थ मुनिधर्म नाहीं पाले | है। कोऊ कहे-अन्य भेषधारीनितें तौ घने आछे हैं-ताते हम मान हैं। सो अन्यमतीनिविषै तौ नानाप्रकार भेष संभवें, जातें तहां रागभावका निषेध नाहीं। इस जैनमतविषै तो जैसा कह्या, तैसा ही भए साधु संज्ञा होय । यहां कोऊ कहै-शील संयमादि पाले हैं, तपश्च। रणादि करे हैं, सो जेता करें तितना ही भला है । ताका समाधान,-- यह सत्य है, धर्म थोरा भी पाल्याहुवा भला है। परन्तु प्रतिज्ञा तो बड़े धर्मकी करिए अर पालिए थोरा, तो तहां प्रतिज्ञाभंगते महापाप हो है। जैसें कोऊ उपवासकी प्रतिज्ञाकरि एक| बार भोजन करे, तो बहुतबार भोजनका संयम होते भी प्रतिज्ञाभंगतै पापी कहिए । तैसें मुनिधर्मकी प्रतिज्ञा करि कोई किंचित् धर्म न पाले, तौ वाकौं शीलसंयमादि होते भी पापी ही कहिए। अर जैसें एकंतकी ( एकासनकी ) प्रतिज्ञाकरि एकबार भोजन करें, तो धर्मात्मा ही है । तैसें अपना श्रावकपद धारि थोरा भी धर्म साधन कर, तौ धर्मात्मा ही है। यहां तो ऊंचा नाम धराय नीची क्रिया करनेते पापीपना संभव है। यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करतें तौ पापीपना होता नाहीं । जेता धर्म साधे, तेता ही भला है। यहां कोऊ कहै-पंचमकालका अंतपर्यंत चतुर्विधि संघका सद्भाव कह्या है । इनकौं साधु न मानिए, तो किसको मानिए। Food100%8cfookGOOGHOOpavocerooracioofo0OOOGookGO00000019500000000000000sfoofaldiocom
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy