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वारणतरण
REKELEGECKGEEK
है कि सर्व लोक व अलोकके भीतर भरे हुए छः द्रव्योंकी अनन्त गुण पर्यायोंको एक काल जान
श्रावनगर सक्ता है।तथापि मोहनीय कर्मके उदय विना इस ज्ञानमें कोईरागदेष मोह नहीं होता है। यह परम शुद्ध वीतरागी बना रहता है। इसीको यथार्थमें सम्यज्ञान कहते हैं। इसीका प्रकाशक आत्मानुभवरूप सम्यकज्ञान है। जो सम्यकदर्शन सहित होता है उसीको उपादेय जानके उसका लाभ करना योग्य है।
श्लोक-श्रियं सम्यकचारित्रं, सम् उत्पन्न शाश्वतं ।
___ अप्पा परम पयं शुद्धं, श्री सम्यक् चरणं भवेत् ॥ ३६३ ॥ अन्वयार्य-(श्रियं सम्यक्चारित्रं ) ऐश्वर्यशाली सम्यक्चारित्र (सम्यक् शाश्वतं उत्पन्न ) भले प्रकार श्री* अविनाशी वीतराग यवाख्यात सम्यक्चारित्रको उत्पन्न कर देता है। तब ( अप्पा परम पर्व शुद्ध) आत्मा परम पदको प्राप्त हुआ शुद्ध होजाता है (श्रीसम्यकूचरणं भवेत् ) यही परम प्रभावशाली सम्यक्चारित्र है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही जो स्वरूपाचरण चारित्र पैदा होता है वही सम्यकूचारित्र है। जितना२ स्वरूपका अनुभव बढ़ता जाता है उतना उतना कषायोंका उपशम होता जाता है। उतना उतना सम्यबारिश भी बढ़ता जाता है, इसी उपाय श्रावकका एक देश संयम तथा मुनिका सकल संयम प्राप्त होता है। जब संज्वलन कषायका अति मंद उदय होता है तब श्रेणी चढकर चारित्र मोहको उपशम करे तो ग्यारहवें उपशांत मोह गुणस्थानमें यथाख्यात चारित्रको पालेता है। यदि चारित्र मोहको क्षय करे तो बारहवें क्षीण मोह गुणस्थानमें यथाख्यात चारित्रवान होजाता है। फिर तेरहवें गुणस्थानमें जब केवलज्ञान होता है तब वह परम यथाख्यात चारित्रवान होजाता है क्योंकि तब वह प्रत्यक्षपने आत्माका धिरपना पालेता है। आत्माकी परम शुद्धि चारित्रके प्रतापसे ही होती है। जितनी २ ध्यानकी शक्ति बढती जायगी नवीन काँका संवर अधिक होगा व पूर्व बडकर्मकी निर्जरा विशेष होगी। स्वात्मानुभव करते२ यह परम एकाग्र स्वचारित्रमें पहुँच जाता है वही यथार्थ सम्पचारित्र है जो अरहंत भगवान सिद्ध परमेष्ठीके पाया जाता है।
श्लोक-श्रियं सर्वज्ञ सार्थं च, स्वरूपं व्यक्त रूपयं ।
श्रियं सम्यक् ध्रुवं सार्थ, श्री सम्यक् चरणं बुधैः ॥ ३६४ ॥