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________________ तारणतरण ॥३५२ ।। यथार्थ नहीं कह सक्ते हैं। आत्मप्रतीति विना द्रव्यलिंगी साधुका ग्यारह अंग नौ पूर्व तकका ज्ञान भी मिथ्यात्व सहित होनेसे मिथ्याज्ञान नाम पाता है। जहां आत्मानुभूति जागृत होजाती है उसी ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह सम्यग्ज्ञान वास्तवमें दोयजका चन्द्रमा है । इसी ज्ञानके द्वारा जितना २ शुद्ध आत्माका अनुभव किया जायगा, ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता जायगा । इसी ज्ञानके बलसे सर्व श्रुतज्ञानका लाभ पाकर श्रुतकेवली मुनि होजाता है जो सर्व श्रुतज्ञानके बलसे अपने शुद्धात्माका अनुभव करते हैं । इसी ज्ञानके बलसे किसीको अवधिज्ञान या मन:पर्यय ज्ञान होजाता है, यही शुद्धात्मानुभव रूप सम्यग्ज्ञान पूर्णमासीके चन्द्रमा समान केवलज्ञानको पैदा कर देता है। चाहे किसीको पूर्ण श्रुतज्ञान या अवधि या मन:पर्यय ज्ञान न भी हो तौभी शुद्धात्मानुभव में यह शक्ति है कि वह कमसे कम एक अंतर्मुहूर्त मात्रके लगातार ध्यान से सर्व ज्ञानावरणीय कर्मको क्षय करके केवलज्ञानको जगा देता है । केवलज्ञान असहाय है इसको किसी इंद्रिय या मनकी जरूरत नहीं है, यह सर्व जानने योग्य पदार्थोंको एक साथ जान सक्ता है, यह फिर कभी आवरण नहीं पाता है, सदा ही रहता है व इसीके प्रकाशसे ही आत्मा अरहंत कहलाता है । सर्व ही अल्पज्ञानियोंके द्वारा वंदनीक पद इसी से प्राप्त होता है । श्लोक - श्रियं सम्यक्ज्ञानं, च, श्रियं सर्वज्ञ शाश्वतं । लोकालोकमयं रूपं, श्री सम्यक्ज्ञान उच्यते ॥ ३६२ ॥ अन्वयार्थ - ( श्रियं सम्यक्ज्ञानं च ) परम ऐश्वर्यशाली सम्यग्ज्ञान ( श्रियं सर्वज्ञ शाश्वतं ) अतिशय रूप सर्व पदार्थों का ज्ञाता व अविनाशी है ( लोकालोकमयं रूपं ) लोकालोकके प्रकाश करनेको दर्पण है ( श्री सम्यक्ज्ञान उच्यते ) ऐसा प्रभावशाली सम्यग्ज्ञान कहलाता है । विशेषार्थ—यहां केवलज्ञानकी महिमा बताई है । यह केवलज्ञान पूर्ण शुद्ध स्पष्ट ज्ञान है जिस ज्ञानके बल से मूर्ती व अमूर्तीक पदार्थ सर्व प्रत्यक्ष दीख जाते हैं । मति श्रुतज्ञान यद्यपि अमूर्तीक जीव धर्म अधर्म आकाश काल इन पांच पदार्थोंको जानते थे, परन्तु प्रत्यक्ष नहीं जानते थे- परकी सहायता से जानते थे । यह मात्र केवलज्ञान में ही शक्ति है जो सबको एक साथ प्रत्यक्ष जानले । यही ज्ञान सर्वज्ञका ज्ञान कहलाता है, इसका कभी न क्षय है, न अंत है। इस ज्ञानमें यह शक्ति श्रावकाचार ।। १५२ ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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