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________________ तारणतरण पवित्र गुणोंमें इसी तरखते है उनके लिये यह दवा मानशास्त्र के मङ्गलाचरणम ह KRELEGEGEGRGGLEGEGREGEGALEEKLLEGEGREGe श्री अर्थात् देव शास्त्र गुरुकी भक्तिके द्वारा उत्पन्न होता है (सर्व ज्ञानमयं शुद्ध श्रियं सम्यग्दर्शनं) यह श्रावकाचार निश्चय सम्यग्दर्शन सर्व प्रकारसे ज्ञानमई शुद्ध प्रास्माका अनुभव करनेवाला है। विशेषार्थ-जैसा पहले कहा गया है देव, शास्त्र, गुरुकी सेवा जो उनके गुणोंको पहचान करके करते हैं, सेवा करते हुए कोई विषय कषायकी पुष्टिकी चाहना नहीं रखते हैं। मात्र उनके पवित्र गुणों में इसी तरह रंजायमान होते हैं जैसे भ्रमर कमलमें आसक्त होता है। उनके द्वारा जो शुद्ध आत्माका लक्ष्य रखते हैं उनके लिये यह देव शास्त्र गुरुकी भक्ति आत्माका अनास्मासे भेदविज्ञान करानेके लिये निमित्त कारण है। जैसा श्री मोक्षशास्त्रके मङ्गलाचरणमें है मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्ममभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ भावार्थ-मैं संसारसे छटनेका मार्ग बतानेवाले, कर्मरूपी पर्वतोंको तोडनेवाले व सर्व तस्वोंके जाननेवाले इन तीन गुण विशिष्ट देवको उन ही गुणोंकी प्राप्तिके हेतुसे वंदना करता हूँ। निश्चय सम्यग्दर्शन आत्माका स्वभाव है। जिसके भीतर यह प्रकाशमान होजाता है उसके शुद्धात्माका अनुभव अवश्य होता है। तथा वह लोकके पदार्थोंमें यथार्थ ज्ञानी होजाता है, आत्माको आत्मा अनात्माको अनात्मा देखता है। श्लोक-ज्ञानं च सम्यक्तं शुद्धं, संपूर्ण त्रिलोकमुद्यमं । ___ सर्वं ज्ञानमयं शुद्धं, पद वन्द्यं केवलं ध्रुवं ॥ ३६१ ॥ मन्वयार्थ (सम्यक्तं ज्ञानं च शुद्ध) सम्यग्दर्शन सहित जो ज्ञान है वही शुद्ध है उसीके द्वारा ही (संपूर्ण त्रिलोक उद्यम ) सर्व तीन लोकको देखनेवाले ज्ञानके लाभका उद्यम होता है वह ज्ञान (सर्व) सर्व सम्पूर्ण है (ज्ञानमय शुद्ध) ज्ञानमय है, सर्व आवरण रहित शुद्ध है ( केवलं ध्रुवं वैद्य पद) केवल असहाय है, नित्य है, वंदनीक पद् उसीसे होता है। विशेषार्थ-सम्यग्ज्ञान विना सम्यग्दर्शनके हुए सम्यक् नाम नहीं पाता है। यद्यपि न्याय शास्त्र ४ द्वारा व युक्ति बलसे व गुरुकी आज्ञा प्रमाण या शास्त्रके वचन प्रमाण कोई जीवादि तत्वोंको संशय विपर्यय अनध्यवसाय रहित ठीक ठीक जानले तथापि जबतक मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायके उपशम होनेसे सम्यग्दर्शन नामी आत्मीक गुणका प्रकाश नहीं होता है तबतक ज्ञानको सम्यग्ज्ञान Man
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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