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(सम्यग्दर्शनमुबम) वह सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उद्योग है (सम्यक्तं संपूर्णशुद्धं च) जो निश्चय सम्यग्दर्शन श्रावकाचार शुरु है (ति अर्थ पंचदीप्तय) वह तीनों अर्थ अर्थात् रत्नत्रय स्वरूप है और पांच परमेष्ठीपदका प्रकाशक है।
विशेषार्थ-देव शास्त्र गुरु जो परमार्थरूप हैं, जिनका स्वरूप कथन इस ग्रन्थमें बहुतसे स्थलोंपर 3 किया है उनका दृढ अडान रखके उनकी भक्ति करना यही निश्चय सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका उद्योग करना है। देव शास्त्र गुरुकी भक्ति करनेसे परिणामों में जितनी २ उज्वलता होगी उतनी २ सम्पग्दर्शनके निरोधक अनन्तानुबन्धी चार कषाय और मिथ्यात्व कर्मकी कमी होगी, उनका बल घटता जायगा। इस तरह मनन करते करते एक दिन पांचों प्रकृतियोंका उपशम होकर निश्चय शुख सम्यग्दर्शन पैदा होजायगा । हमें अपना उद्यम चार तरहका रखना चाहिये। (१) श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति, भक्ति व गुणानुवाद गाना, उनके स्वरूपको देखना, विचारना, उनकी पूजा करनी । (२) जिनवाणीका नित्य प्रति स्वाध्याय करके सात तत्वोंको समझना । (३) अध्यात्म ज्ञाता परम ध्यानके अभ्यासी गुरुओंकी भक्ति करके सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति करना । (४) प्रातःकाल और संध्याकाल कुछ देर एकांतमें बैठकर सामायिक करना, बारह भावनाका विचार करना, आत्मा व अनात्माका भिन्नर स्वरूप भाना। इन चार उपायोंके करनेसे कभी न कभी सम्यक्त होजाना संभव है। जबतक सम्यक्त न होगा तबतक भी परिश्रम वृथा नहीं जायगा। जितना पुण्य बांधोगे वह संसारमें साताको पैदा करेगा, असातासे बचाएगा।
निश्चय सम्यग्दर्शन जब उदय होगा तब वहां सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र भी प्रगट होजाता है। ऐसा ही सम्यक्त रत्नत्रयमई स्वात्मानुभवमें जब लिया जाता है तब यही कषायको मंद करता हुभा श्रावकसे साधु, साधुसे आचार्य व उपाध्याय, आचार्य उपाध्यायसे फिर साधु-साधुसे अरहंत, अरहंतसे सिद्ध बना देता है। अतएव पांच उत्तम पदों के प्रकाशका परम्पराय कारण श्रीकी भक्ति है, देव शास्त्र गुरुकी आराधना है।
श्लोक-श्रियं सम्यग्दर्शनं, श्रियं कारण उत्पयते ।
. सर्वं ज्ञानमयं शुद्धं, श्रियं सम्यग्दर्शनं ॥ ३६० ॥ अन्वयार्थ-(श्रियं सम्यग्दर्शनं ) परम ऐश्वर्यशाली महत्वपूर्ण निश्चय सम्यग्दर्शन (श्रियं कारेण उत्पद्यते) ॥१५॥