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________________ Roopsieutarnadousewindoorangoosindinatorpadossionerotestandorkartanat9-10.109o छदिकरेवि णु तेवि जिय, सो पुण छददि गिलन्ति ॥२१७॥ ____ हे जीव ! जे मुनि लिंगधारि इष्ट परिग्रहको ग्रहें हैं, ते छर्दि करि तिस ही छर्दिकू बहुरि भले हैं। भावार्थ यह निंदनीय है । इत्यादि तहां कहै हैं। ऐसे शास्त्रनिविष कुगुरूका वा तिनके आचरनका वा तिनकी सुश्रूषाका निषेध किया है, सो जानना। बहुरि जहां मुनिकै धात्रीदूतादि छीयालीस दोष आहारादिविषे कहे हैं, तहां गृहस्थनिके बालकनिकों प्रसन्न क रना, समाचार कहना, मंत्र औषधि ज्योतिपादि कार्य घतावना इत्यादि, बहुरि किया कराया है। अनुमोद्या भोजन लेना इत्यादि क्रियाका निषेध किया है । सो अब कालदोषते इनही दोष निकों लगाय आहारादि ग्रहै हैं । बहुरि पार्श्वस्थ कुशीलादि भ्रष्टाचारीमुनिनिका निषेध किया है, तिनहीका लक्षणनिकों धरै हैं। इतना विशेष-वे द्रव्यां तो नग्न रहे हैं, ए नानापरिग्रह राखे हैं । बहुरि तहां मुनिनिकै भ्रमरी आदि आहार लेनेकी विधि कही है। ए आसक्त होय। दातारके प्राण पीडि माहारादि प्रहै हैं । बहुरि गृहस्थधर्मविर्षे भी उचित नाही वा अन्याय लोकनिंद्य पापरूप कार्य तिनकं करते देखिए है। बहुरि जिनबिम्ब शास्त्रादिक सर्वोत्कृष्ट पूज्य तिनका तो अविनय करें हैं । बहुरि श्राप तिनसे भी महंतता राखि ऊचा बैठना आदि प्रवतिको धारे हैं । इत्यादि अनेक विपरीतिता प्रत्यक्ष भासै अर आपको मुनि माने, मूषगुणादिकके धारक कहावें । ऐसें ही अपनी महिमा करावें । बहुरि गृहस्थ भोले उनकरि प्रशंसादिक 380pzHORRORIGYOOKOctropirefo+180NOKGOOKacroorcoacroopsiookG10018010010ccootoskoolackoncernment
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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