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मा.माः
प्रकाश
वरं माहर्त्यमेवाद्य सपसो माविजन्मनः ।
सुस्त्रीकटाचलुण्टाकलुप्तवैराग्यसम्पदः ॥२०॥
प्रबार होनहार है अनन्तसंसार जाते ऐसे तपते गृहस्थपना ही भला है । कैसा है वह || तप प्रभात ही स्त्रीनिके कटाक्षरूपी लुटेरेनिकरि लूटी है वैराग्य संपदा जाकी ऐसा है । बहुरि | | योगीन्द्रदेवकृत परमात्माप्रकाराविर्षे ऐसा कहा है
दोहा। चिल्ला चिल्ली पुत्थयहि, तूसइ मृढ़ णिभंतु।
एयहिं लज्जइ णाणियउ, बंधहहेउ मुणंतु ॥ २१४ ॥
चेला चेली पुस्तकनिकरि मूढ़ संतुष्ट हो है । भ्रांतिरहित ऐसे ही है । बहुरि ज्ञानी इनको | बंधका कारण जानता संता इनकरि लज्जायमान हो है।
केशवि अप्पा वंचियउ, सिर लुञ्चिवि छारेण ।
सयलवि संग त परिहरिय, जिणवरलिंगधरेण ॥२१६॥ किसी जीवकरि अपना प्रात्मा ठिग्या । सो कौन, जिह जीव जिनवरका लिंम धारया अ रावकरि माथाका लोचकरि समस्तपरिग्रह छांड्या नाहीं।
जे जिलिंग धरेवि मुणि इट्ठपरिग्गह लिंति ।
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