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जे पावमोहियमई लिंगं धतण जिणवरिंदाणं ।
पावं कुणंति पावा ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥७८॥ पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनिका लिंग धारि पाप करें हैं, ते पापमूर्ति मोक्षमार्गवि भ्रष्ट जानने । बहुरि ऐसा कहा है
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला।
आधाकम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्नमग्गम्मि ॥७॥ जे पंचप्रकार वस्त्रविर्षे प्रासक्त , परिग्रहके ग्रहणहारे हैं, याचनासहित हैं, अधःकर्म आदि दोपनिविषै रत हैं, ते मोक्षमार्गविषै भ्रष्ट जानने । षड्डरि कुन्दकुन्दाचार्यकृत लिंगपाहुड़ है, ताविषे मुनिलिंगधारि जो हिंसा प्रारम्भ यंत्रमंत्रादि करें हैं, ताका निषेध बहुत किया है। बहुरि गुणभद्राचार्यकृतात्मानुशासनविर्षे ऐसा कह्या है,- .
इतस्ततश्च प्रस्यन्तो विभावा यथा मृगाः ।
वनाद्वसन्त्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः ॥१७॥ कलिकालविषै तपस्वी मृगवतू इधर उधरतै भयवान् होय वनते नगरकै समीप बसे हैं, । यह महाखेदकारी कार्य भया है। यहां नगरसमीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविषै रहना तो । निषिद्ध भया ही।
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