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मा.मा. प्रकाश
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जेवि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जगारवभएण ।
तेसिपि णत्थि वोही पावं अणुमोयमाणाणं ॥१३॥ जो जाणता हुवा भी लज्जागारव भयकरि तिनकै पगों पड़े हैं, तिनकै भी बोधी जो स-1 म्यक्त सो नाहीं है । कैसे हैं ए जीव, पापकी अनुमोदना करते हैं। पापीनिका सन्मानादि किए। तिस पापकी अनुमोदनाका फल लागे है । बहुरि ( सूत्रपाहुड़में ) कहै हैं,
जस्स परिग्गहगहणं अप्पं बहुयं च हवद लिंगस्स।
सो गरहिउ जिणवयणे परिंगहरहिमओ णिरायारो ॥१६॥ जिस लिंगकै थोरा वा बहुत परिग्रहका अंगीकार होय, सो जिनवचनविषै निदायोग्य है। परियहरहित ही अनगार हो है । बहुरि (भावपाहुड़में ) कहै हैं
धम्मम्मि णिप्पिवासो दोसावासो य इखुफुल्लसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण ॥७१॥ जो धर्मविष निरुद्यमी है, दोषनिका घर है, इक्षुफूल समान निष्फल है, गुणका आच रणकरि रहित है, सो नग्नरूपकरि नट श्रमण है । भांडवत् भेषधारी है । सो नग्न भए भांड। का दृष्टांत संभव है । परिग्रह राखें, तो यह भी दृष्टांत बने नाहीं।
बहुरिमोदपाहुड़में कहा है
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