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कारणवरण
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में
पात्र कहा जाता है वे (मतिश्रतज्ञान संपूर्ण ) वे मति व श्रुतज्ञानसे पूर्ण होसके हैं (अवधी भावना कृतं ) तथा अवधिज्ञानकी भावना होती है ।
विशेषार्थ – उत्कृष्ट श्रावक दसमी व ग्यारमी प्रतिमाधारी होते हैं । दसमी प्रतिमावालेको अनुमति त्यागी श्रावक कहते हैं, ग्यारमी प्रतिमावालेको उद्दिष्ट त्यागी कहते हैं। यह भी अपने उद्देश्य से किया हुआ आहार मुनिके समान नहीं लेते हैं। इस ११ मी प्रतिमाके दो भेद प्रसिद्ध हैं-एक क्षुल्लक, दूसरे ऐलक । क्षुल्लक एक खण्ड वस्त्र व लंगोटधारी होते हैं । मोर पिच्छिका व कमण्डल रखते हैं । पात्र में बैठकर भोजन करते हैं। कई एक ही घर से भिक्षा या भोजन करते हैं। कोई अपने भिक्षा के पात्र में कई घर से थोडा २ लेकर अंतिम घरमें बैठ भोजन करते हैं। ऐलकमें विशेषता यह है कि वे मात्र एक लंगोट रखते हैं, हाथोंसे केशका लोंच करते हैं व बैठकर एक ही घर भिक्षासे अपने हाथों में दिया हुआ भोजन करते हैं। मध्यम पात्र दर्शन प्रतिमासे लेकर उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा तक ११ प्रतिमावाले होते हैं। इनमें उत्तम १०मी व ११मी प्रतिमाधारी हैं। मध्यम सातमीसे नौमी तक होते हैं। पहली से छठी तक मध्यम में जघन्य हैं। कोई कोई तीर्थंकर जन्मसे मति श्रुन अवधिज्ञानी होकर भावकके व्रत धारते हैं, अन्य कोई मतिश्रुतज्ञानी होते हैं। यहां पूर्णसे भाव पूर्ण द्वादशांग वाणीसे नहीं है क्योंकि पूर्ण द्वादशांगके ज्ञाता श्रुतकेवली साधु होते हैं, परंतु श्रावक भी यथार्थ मति व श्रुतज्ञानके धारी होते हैं व शास्त्रोंके विशेष मर्मज्ञ होते हैं । प्रयोजन यह है कि शास्त्रका ver ज्ञान हुए बिना श्रावकका चारित्र ठीक २ नहीं पल सक्ता है इसलिये श्रावकको मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी होना चाहिये । तथा उत्कृष्ट आवकको यथायोग्य भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये । उनमें से ११ मी प्रतिमावालेको तो आहार पानी शुद्ध कह करके पडगाहना चाहिये व उच्च आसनपर बिठा पग प्रछालन करना चाहिये व यथायोग्य वन्दना करनी चाहिये, पूजन व अर्ध चढ़ानेकी जरूरत नहीं है । पूजन मात्र देव, गुरु, शास्त्रकी होती है। जो क्षुल्लक अनेक घर आहारी हैं उनको खंड खंड ही पात्र में भोजन दिया जायगा । भोजन व मन, वचन, कायकी शुद्धि तो होनी ही चाहिए । १० मी प्रतिमाषालेको भोजन के समय बुलाकर जिमाना चाहिए, शेष पहलेसे निमंत्रण मानसके हैं।
श्रावकाचार
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