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वारणवरण
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श्लोक - आज्ञावेदक सम्यक्तं, उपशमं साधें भुवं ।
पदवी द्वितीय आचर्य, मध्यपात्रं सदा बुधैः || २६१ ॥
अन्वयार्थ —- ( आज्ञावेदक सम्यक्तं उपशमं ध्रुवं सार्धं ) आज्ञा सम्पक्त, वेदक सम्यक्त, उपशम सम्पक तथा ध्रुव अर्थात् क्षायिक सम्यक्त सहित ( पदवी द्वितीय आचर्य ) जो दूसरी श्रावककी पदवीका आचरण करते हैं उनको (बुधैः सदा मध्यपात्र) आचापने सदा ही मध्यमपात्र कहा है ।
विशेषार्थ – यहां ऐसा अभिप्राय झलकता है कि मध्यम पात्रको सम्यग्दर्शन सहित श्रावक व्रतोंका आचरण करना चाहिये । यदि वह एकदम मिथ्यात्व से पांचवें गुणस्थानमें अनंतानुबंधी कषाय और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके उपशमके व मिथ्यात्व के उपशमसे आए तो वह श्रावक उपशम सम्यक्त सहित होगा अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्ती उपशम श्रेणी से गिरकर पांचवेंमें आवे तौभी उपशम सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि वेदक सम्यक्त चौथे या पांचवें में प्राप्त करे या वेदक सहित छठेसे पीछे आवे तो वेदक सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि क्षायिक सम्यक्त चौथे या पांचवें में प्राप्त करे या क्षायिक सम्यक्तवाला छठेसे पीछे आवे तो क्षाधिक सम्यक्त सहित श्रावक होगा । यदि कोई जिनेन्द्रकी आज्ञाके अनुसार तत्वोंका श्रद्धान करके श्रावकके व्रत पालने लगे तो उसको आज्ञासम्यक्त सहित श्रावक कहेंगे परन्तु वह यदि उपशम या वेदक या क्षायिक सम्पत सहित नहीं है तो वह निश्चयसे न सम्पदृष्टी है और न श्रावक पंचम गुणस्थानवर्ती है। किंतु उसको श्रावक चारित्रवान निश्चय सम्यक्त रहित मानेंगे और व्यवहार सम्यक्तका धनी व व्यवहार चारित्रका धनी मानते हुए उसे कुपात्रों में गिनेंगे, परन्तु वह भी दानका पात्र होगा। जैन सिद्धांत में कहा है कि जो सम्यक्त सहित चारित्रवान हैं वे सुपात्र जो निश्चय सम्यक्त रहित यथार्थ चारित्रवान हैं वे कुपात्र हैं। ये दोनों ही दान देनेके योग्य हैं। जिसका व्यवहार चारित्र दोनों ही ठीक न होंगे वह अपात्र हैं, दान देनेका पात्र नहीं है।
सुपात्र और कुपात्र में व्यवहार चारित्रकी अपेक्षा कोई अंतर नहीं है, मात्र निश्चय सम्यक्त पात्र में नहीं होता। ऐसा ही अमितगति श्रावकाचार में कहा है
चरति यश्चरणं परदुश्वरं, विकटघोरकुदर्शनवसितः । सकलसस्वहितोद्यतचेतनो वितयकर्कश्शवाक्य परां सुखः ॥ अ० १०-३४॥
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श्रावकाचार
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