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विशेषार्थ-दसमी प्रतिमा अनुमति त्याग है। इस श्रेणीमें श्रावक धर्म सम्बन्धी चर्चा श्रावकाचार सिवाय और कोई लौकिक चर्चा नहीं करता है। कोईलौकिक सम्मति गृहस्थके क्षणभंगुर मिथ्या कार्य सम्बन्धी व व्यापार सम्बन्धी व विवाहादि सम्बन्धी पूछे तो कुछ नहीं कहता है और न १ मनमें ही उस सम्बन्धी अच्छा या बुरा चिंतवन करता है। नौमी प्रतिमा तक तो यदि कोई सम्मति सांसारिक कार्य सम्बन्धी पूछता तो यह उदासीन भावसे मात्र उसके लाभ व हानि बता देता.प्रेरक रूपसे कुछ नहीं कहता । इस श्रेणी में वह इन बातोंसे भी विरक्त होजाता है। भात्मकल्याण सम्बन्धी व धर्मकी उन्नतिकारक बात ही कहता है व इसीमें सम्मति देता है। इसके परिपानी में हिंसा भाव बहुत अधिक है। किंचित् भी उसके निमित्तसे हिंसा हो यह इसे पसंद नहीं है। इसीलिये यह श्रावक पहले से निमंत्रण नहीं मानता है। भोजन के समय कोई बलावे चला जाता है, सदा शुद्ध आत्माके ध्यानका लक्ष्य रखता है। रत्नकरंडमें कहा है
अनुमतिरारम्ये वा परिग्रहे वैहिकेषु फर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥१६॥
भावार्थ-जो समभाव धारक ज्ञानी श्रावक बाहरी कार्योंके सम्बन्धमें आरम्भ करने व धनादि परिग्रह एकत्र करनेकी सम्मति नहीं देता है वह अनुमति त्याग श्रावक है ऐसा जानना चाहिये। यह मध्यम पात्रमें उत्तम गिना गया है।
श्लोक-उदिष्ठं उत्कृष्ट भावेन, दर्शन ज्ञान संयुतं ।
चरणं शुद्ध भावस्य, उदिष्ठं आहार शुद्धये ॥ ४३४ ॥ अंतराय मनं कृत्वा, वचनं काय उच्यते ।
मनशुद्धं वच शुद्धं च, उद्दिष्टं आहार शुद्धये ॥ ४३५ ॥ अन्वयार्थ (उत्कृष्ट मावेन) श्रेष्ठ भावोंके साथ (दर्शन ज्ञान संयुतं चरणं उद्दिष्टं ) सम्पदर्शन सम्य. जान सहित चारित्र पालनेका जिसके उद्देश्य हो ऐसे (शुद्ध भावस्य ) शुर भाव धारीके (उदिष्ट आहार शुद्धये) उरिष्टाहारका त्याग होता है। (मनं वचनं काय कृत्वा अंतराय उच्यते) मन, वचन, काय सम्बन्धी अंतरायको बचाना इसके लिये कहा गया है (मनशुद्ध व शुद्धंच) इसका मन र व वचन शर होता है सो (उदिष्टं आहार शुद्धये) अरिष्ट आहारका त्यागी आवक है।
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