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तारणतरण
॥४१८॥
अन्वया_पिरिम पदलाचा परिणाम आदि पद्धल जो शरीर उसके लिये होती है। श्राव यह श्रावक (परिग्रह न चिंतए) परिग्रहकी चिंता छोड देता है (शुद्ध दर्शनं ग्रहण) इसके शुद्ध सम्पग्दर्शनका ग्रहण है (परिग्रह न विदिष्टते) और परिग्रह नहीं दिखलाई पडता है।
विशेषार्थ-अब नौमी परिग्रह त्याग प्रतिमाको कहते हैं । इस श्रेणी में आकर वह श्रावक अपने पास सर्व सम्पत्तिको जिसे देना हो देदेता है। धर्मकार्यों में व दान धर्ममें लगा देता है। अब अवश्य नियमसे घरको त्याग कर धर्मशालामें व उपवनमें, सर्वसाधारणके उपयोग योग्य स्थानमें जहां अपना स्वामीपना नहीं है वहां रहता है। शरीरसे ममता छोड दी है। मात्र शरीर रक्षाके हेतु कुछ वस्त्र व वर्तन रखता है। रुपया पैसा कुछ नहीं रखता है। निमंत्रण किये जानेपर जो आहार करावे उसे संतोषसे कर लेता है। यह अपना स्वामीपना अपने ज्ञान दर्शन आत्माके स्वभावमें ही रखता है। और सर्व तरहसे ममता दूर कर देता है। इसके निरंतर भावना मुनिपद धारनेकी रहती है। रत्नकरंड श्रावकाचारमें कहा है
बासेषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥ १४५ ॥
भावार्थ-यह परिग्रह त्यागी श्रावक बाहरी १० प्रकारकी वस्तुओंसे ममता छोड देता है, उनका त्याग कर देता है, क्षेत्र, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, कपडे, वर्तन, इन सबसे स्वामीपना हटा लेता है। परम वैराग्यमें लीन होकर आत्माके ध्यानमें तिष्ठता है। परम संतोष रखता है। तत्वविचारमें लगा रहता है व धर्मके स्वामी साधुओंकी संगति रखता है। ग्रामादिमें विहार करता हुआ स्वपर कल्याण करता है। ___ श्लोक-अनुमति न दातव्यं, मिथ्यारागादिदेशनं ।
अहिंसा भावशुद्धं च, अनुमति न चिंतए ॥ ४३३ ॥ अन्वयार्थ-(मिथ्यारागादिदेशन अनुमति न दातव्यं) मिथ्या राग द्वेष सम्बन्धी भावको उपदेश करने वाली सम्मति न देना चाहिये (अनुमतिं न चिंतए) न ऐसी सम्मति देनेकी चिंता ही करनी चाहिये (महिंसा भावशुद्ध च) अहिंसाभाव व शुद्ध आत्मीक भाव सदा रखना चाहिये सो अनुमति त्याग
Vin भावक है।