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वारणवरण
॥४१७॥
रहता है । वह जानता है कि निश्चय रत्नत्रय स्वात्मानुभवको कहते हैं। उसके निरंतर स्वात्मानुभवका अभ्यास रहता है। जब आत्माके मननमें उपयोग नहीं लगाता है तब जिनवाणीका अभ्यास करता है - उसमें आध्यात्मीक शास्त्रोंपर विशेष लक्ष्य देता है, जो जो नियम पहले से हैं उनको भले प्रकार पालता है । व्यवहार सम्यग्दर्शनके द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शनको व्यवचार सम्पज्ञान के द्वारा निश्चय सम्यग्ज्ञानको व व्यवहार सम्यक्चारित्र के द्वारा निश्चय सम्यक्चारित्रको दृढता से साधन करता है। शुद्ध नित्य आत्माके अनुभव में उपयोगको जमानेका मुख्य आरंभ करता है, हिंसामई आरंभसे बचता है, अहिंसा के आरंभ में प्रवर्तता है ।
श्लोक - आरंभं शुद्ध तत्वं च संसार दुःख व्यक्तयं । मोक्षमार्ग च दिष्टंते, प्राप्तं शाश्वतं पदं ॥ ४३१ ॥
अन्वयार्थ – ( शुद्ध तत्वं च आरंभ ) शुद्ध आत्मीक तत्वका विचार ( संसार दुःख व्यक्त ) संसारके दुःखों से छुड़ानेवाला है (मोक्षमार्ग च दिष्टंते ) मोक्षका मार्ग दिखानेवाला है (शाश्वतं पदं प्राप्तं ) व अविनाशी पदको प्राप्त कराने वाला है ।
विशेषार्थ – संसारीक कार्योंका आरम्भ संसारके भ्रमणका कारण है तब आत्म कार्यका आरंभ संम्रारके दुःखोंको छुडानेवाला है तथा मोक्ष प्राप्त करानेवाला है। अविनाशी निर्वाण पदका साधन स्वात्म ध्यान है, जहां शुद्ध आत्माका अनुभव है वहीं रत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है, आरंभ त्यागी श्रावक सर्व संकल्प विकल्प त्यागकर निश्चिंत होकर दिनरात आत्मा के उद्धार में ही दत्तचित्त रहता है। धार्मिक अंतरंगका इसके त्याग नहीं है इसलिये धर्मोन्नतिके कार्योंको करता रहता है, पूजा पाठ स्तुति करता रहता है। दानधर्म करता व कराता रहता है। अभी यह परिग्रहका स्वामी है, घनको शुभ कार्यों में लगाकर सफल करता है। ज्ञानकी उन्नतिमें विशेष लक्ष्य देता है । यह बडा दयालु है, दुःखी प्राणियोंके दुःख मेटता है, जगतमें जीवदयाका प्रचार करता है, सर्वसे प्रेम भाव रखता हुआ धर्मकी प्रभावना करता है ।
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श्लोक – परिग्रहं पुद्गलार्थं च परिग्रहं न चिंतए ।
ग्रहणं दर्शनं शुद्धं, परिग्रह न विदिष्टते ॥ ४३२ ॥
श्रावकाचार
॥ ४१७ ॥