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________________ तारणतरण GENEVEGEEGGREEMEGECREVEGElectEGEGLEC44 श्लोक-आरंभं परिग्रहं दिलं, अनंतानंत चिंतए । श्रावकाचर ते नरा ज्ञान हीनस्य, दुर्गतिगमनं न संशयः॥ ४२९ ॥ अन्वयार्थ (आरंभ परिग्रहं दिष्टं) भारंभ व परिग्रहको देखकर (अनंतानंत चिंतए) वह अनंतानंत परिग्रहकी प्राप्तिकी चिंता किया करता है (ते नरा ज्ञान हीनस्य) वे मानव सम्यग्ज्ञानसे शून्य हैं (दुर्गति गमनं न संशयः) उनका कुगतिमें गमन होगा इसमें कोई संशय नहीं है। विशेषार्थ-अज्ञानी देखी सुनी परिग्रहको विचार कर व देखे सुने आरम्भको जानकर निरंतर अधिकाधिक धनकी प्राप्तिकी चिंता किया करता है । कथाओं में चक्रवर्तीकी सम्पदा पढकर व इंद्रकी विभूति जानकर व उनकी अमोघ शक्तिको सुनकर तथा परदेश या स्वदेशमें बडे २ कोट्याधीश, मानवोंकी सम्पत्ति सुनकर व उनका बड़ा भारी व्यापार जानकर यह चिंता किया करता है कि कब मैं ऐसा आरम्भ करूँ, कब मैं इतना बडा धनी होजाऊँ, क्या मैं ऐसा काम करूँ जिससे चक्रवर्ती नारायण, प्रतिनारायण, र जा, महाराजा, इन्द्र, धर्णेन्द्र आदिके भोग मामग्रीको प्राप्त कर सकूँ, इस तरह अनंतानुबंधी कषायके उदयसे आरंभ परिग्रहकी घोर चिंता करके कुभावोंके अनुसार धन अल्प रहते हुए व अल्पारम्भ करते हुए भी तीव्र कर्म बांध लेता है। बहुधा नर्क आयु बांधकर नर्क चला जाता है। अतएव आरम्भ महान दुखदाई है। श्लोक-आरंभ शुद्ध दिष्टं च, सम्यक्तं शुद्धं ध्रुवं । दर्शनं ज्ञान चारित्रं, आरंभ शुद्ध शाश्वतं ॥ ४३० ॥ अन्वयार्थ-ज्ञानीके (शुद्ध आरंभ दिष्टं च) शुद्ध भावके पानेका आरंभ देखा जाता है उसके (शुद्धं ध्रुवं सम्यक्तं) शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शन होता है (दर्शन ज्ञान चारित्रं ) उसके सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रत्नत्रयका (भारंभ शुद्ध शाश्वतं) आरंभ शुद्ध नित्य होता है। विशेषार्थ-आरंभत्यागी श्रावक सम्यग्दृष्टी होता है वह सर्व लौकिक आरंभको महा पापका कारण समझकर त्याग देता है, मात्र शुद्धात्मीक भायोंकी प्राप्तिका आरंभ अर्थात् धर्मध्यानका आरंभ करता रहता है। अपने निर्मल सम्यक्त भाव के कारण वह रत्नत्रयकी शुद्धिका पस्न करता
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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