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वारणतरण
४ श्रावकाचार
बल तो काम करता है। मनमें द्रव्य मन में हलन चलन होता है क्योंकि मनोवर्गणा भी उनके आती है। पांच इंद्रियोंसे काम नहीं लेते क्योंकि मतिज्ञान उनके नहीं रहा। इंद्रियोंके आकार है परंतु वे कुछ काम नहीं आते हैं। आयु कम समय समय खिरता है। मंद मंद श्वास आता है। इस तरह शरीर सहित परमात्माको पूज्यदेव मानके भलेप्रकार पूजा व भाक्त करनी योग्य है। उनके गुणोंमें एकाग्र होना योग्य है। पद्मनंदी मुनिनै श्रावकाचारमें कहा है
ये जिनेन्द्रं न पश्यंति पूनमन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥ १५॥
भावार्थ-जो जिनेन्द्रका दर्शन, पूजन, स्तवन, नहीं करते हैं उनका जीवन निष्फल है, उनके गृहाश्रमको धिक्कार है।
श्लोक-देवो परमेडि मइओ, लोकालोकं विलोकितं ।
परमप्पा ज्ञानमइओ, तं अप्पा देह मझमि ॥ ३२४ ॥ अन्वयार्थ—(परमेट्ठि महओ देवो) परम पदमें तिष्टनेवाला देव सिद्ध है (लोकालोकं विलोकित) जिसने लोकालोकको देख लिया है जो (ज्ञान मइओ) ज्ञानमई (परमप्पा) परमात्मा है (देह मज्झमि त अप्पा) इस देहके मध्यम वही आत्मा है।
विशेषार्थ-इसके पहले श्लोकमें अरहंत देवका स्वरूप कहा है वहां सिद्ध परमात्माका स्वरूप कहते हैं। सिद्ध भगवान सर्वोत्कृष्ट पदमें विराजित हैं आठ कर्म रहित होनेसे अशरीर परमात्मा हैं ज्ञानाकार हैं व जिनके ज्ञानमें लोकालोक दर्पणमें प्रतिबिम्बकी तरह झलक रहा है। वे सर्व रागादि दोष, आठ कर्म मल व शरीरादिसे रहित केवल आत्मा ही मात्र हैं। जैसा सिद्धका स्फटिकमाणिमय निर्मल स्वरूप है वैसा ही इस शरीरके भीतर जो आत्मा है उसका निश्चयनयसे स्वरूप है अर्थात् जब द्रव्यकी दृष्टिसे देखा जावे तो अपने शरीरके भीतर यह आत्मा भी आत्मारूप सिद्ध सम कर्मबंध रहित दिखलाई पडता है। इस आत्मा और परमात्मामें कोई अंतर नहीं है।दोनोंके गुण स्वभाव समान है। मात्र प्रदेशोंकी अपेक्षा भिन्नता है। यद्यपि प्रदेशोंकी संख्या भी असंख्यात प्रदेशी समान है। वास्तवमें जो अपने आत्माको भेद विज्ञानके द्वारा सर्व अनात्मासे
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