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________________ श्रावर २१॥ ॐ त्याग करेंश उपभोगने शेग्य पदार्थ का मित्य संदेरे प्रमाण करके व उसी तरह चले सो शुद्ध 2. संयम है। अनशन ऊनो र रस त्याग आदि बाहरी तपोंको यथाशक्ति करता हुभा सवेरे सांझ दो दफ कुछ दे एकांत में धैरकर अपन शुद्ध आत्माके स्वभा में नन्मय होनप करे, सो शुद्ध तप है। उत्तम, मम, घीन प्रकार पात्रों में से जो मिल मके, उनको भकपूर्वक दान देनेका विचार करके शुद्ध अ हराम औषधिज्ञान, अभयदान व ज्ञानदान देना सो शुद्ध पात्रदान है। इस तरह शुद्ध टूकमा को जिनेन्द्र भवा-ने कहा है। इनके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शन का होना अत्यन आवश्यक है। ग्यत महिल ये षट्कर्म गृहस्थ श्रायकको परम्परासे मोक्षके कारण हैं। व उनी भवसे स्वर्ग गलिके दनवाले हैं। शुद्धात्माकी भावना सहित्व ही जैनके षद्कम एक जिन भक्त के लिय आवश्यक है इससे परम कल्याण है। पांच परमेहीका स्वरूप । श्लोक-देवं च जिन उक्तं च, ज्ञान मय अप्प सद भावं । अनंत चतुष्टय जुत्तं, चौदस प्राण संजुदो ॥ ३२३ ॥ अन्वयार्थ-(देव च उतं च जिन) देव उसको कहा है जो जिन हों (ज्ञान मय अप्प सद् भावं) ज्ञान मय आस्माके स्वभावमें लीन हो ( अनंत चतुष्टय जुत्त ) अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख व अनंत वीर्य इन चार चतुष्टय सहित हों तथा (चौदस प्राण संजुदो) चार प्राण या दसप्राण सहित हों। विशेषार्थ-यहां अरहंत परमात्माको पूज्यनीय आप्त देव कहा है। जो चार घातिया कोके व रागादिके जीतनेवाले जिन हों,जो निरंतर आत्माके रस में तन्मय हो, जिनको अनंत ज्ञानादि चतुष्टय प्राप्त हो, जिनमें कोई प्रकारका अज्ञान व मोह न हो, जो शरीर सहित रहते हुए-इंद्रिय, बल, आयु व श्वासोच्छाम इन चार प्राणोंको धारते हैं या इनके भेदरूप दस प्राणों को धारते हैं अर्थात् १. पांच इंद्रिय, तीन शरीरादि यल, आयु व शासोच्छास ये १० प्राण जिनमें हों वे ही अरहंत देव हैं। यद्यपि ये १० बाहरी प्राण अरहंत भगवान में होते हैं तथापिइनमेंसे कर्मके उदयसे शरीर व वचन
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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