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श्रावकाचार
कारणवरण
मूढताओंको छोड देता है (शुद्ध सम्यक् रतः सदा) वह सदा ही शुद्ध आत्मानुभव रूप सम्यग्दर्शनमें तन्मय रहता है।
विशेषार्थ-जैसे लोकमूढता मिथ्यात्व व अज्ञान है वैसे देवमूढता भी मिथ्यात्व व अज्ञान है। रागी देषी देव तो स्वयं संसारासत हैं, उनकी पूजा करना वीतरागताका कारण नहीं होसका है। अतएव किसी लौकिक प्रयोजनवश इन देव जातिके जीवोंकी भक्ति करना बिलकुल मूर्खता है अथवा जिनमें देवपना बिलकुल नहीं है ऐसे, गौ, मोर, घोडा आदिको देव मानकर पूजना या किसी पत्थरके खंडको रागी देषी देवकी स्थापनामें पूजना सो सब देवमूढता है। सम्यग्दृष्टी सम्यग्ज्ञानी होता है। वह जानता है कि परिणामोंको उज्वल करना चाहिये। उसका उपाय मात्र सर्वज्ञ वीतराग देवका आराधन है। तथा किसी विषयकी चाह करके किसी देवको पूजना मिथ्यात्वका अंग है, नि:कांक्षित अंगसे विरुड है। इस तरह वह ज्ञानी कभी भी मिथ्या अडान व मिथ्याज्ञानके वश हो मूढतासे देखादेखी किसी कुदेवको या किसी अदेवको पूज्यनीय देव नहीं मान बैठता है।
वह तो शुद्ध सम्यक्त भाव में प्रेमी बन रहा है। हरसमय आत्मानुभवका खोजी है। आत्मानन्दका * विलासी है, वह संसार शरीर भोगोंसे उदास है, वह क्षणभंगुर भोगोंकी कामनासे कभी भी देव मढता नहीं करता।
श्लोक-पाखण्डी मूढ उक्तं च, अशाश्वतं असत्य उच्यते ।
अधर्म च प्रोक्तं येन, कुलिंगी पाखण्ड त्यतयं ॥ ३८५ ॥ अन्वयार्थ-(पाखंडी मूढ उक्तं च) पाखंडी या गुरु मृढताको कहते हैं। जो (अशाश्वतं मसत्य उच्यते) क्षणिक पदार्थोको क्षणिक न कह करके चिरस्थायी कहे। (येन च अधर्म प्रोक्तं) अधर्मका भाषण करे सो (कुलिंगी पाखण्ड ) कुभेषधारी साधु हैं उनकी भक्ति (त्यक्तयं) छोडनी योग्य है।
विशेषार्थ-जो निग्रंथ आरम्भ परिग्रह रहित वीतरागी तत्वज्ञानी साधु हैं वे मोक्षमार्गी है उनकी भक्ति मोक्षमार्गमें प्रेरक है, परन्तु जो साधु भेष धारकरके आरम्भ परिग्रहमें लीन हैं, हिंसा होते हुए अहिंसा मानते हैं, संसारके प्रपंचसे बाहर नहीं हैं, ऐसे साधुओंकी कोई बाहरी महिमा या उनका चमत्कार देखकर या जानकर उनपर मोहित होजाना व उनकी भक्ति करने लग जाना