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________________ हन भावनाओंको ध्यानमें लेते हुए पहली प्रतिमावालेको पांच अणुव्रतोंका अभ्यास करना ४ चाहिये । देव पूजादि षट्कर्म पालते रहना चाहिये । पांच परमेष्ठीमें दृढ़ भक्ति रखना चाहिये तथा सम्यक्वको २५ दोष रहित पालना चाहिये। श्लोक-मूढत्रयं न उत्पाद्यते, लोकमूढं न दिष्टते। जेतानि मृढदृष्टी च, तेतानि दृष्टि न दीयते ॥ ३८३ ॥ अन्वयार्थ-(मूढत्रयं उत्पाद्यते ) दर्शन प्रतिमाघारीके तीन मूढता नहीं उत्पन्न होती हैं (लोकमूद न ५ दिष्टते) पहली लोकमूढता नहीं दिखलाई पडती है (जेतानि मूढदृष्टी च) जितनी जगतमें मढताईकी श्रद्धाएँ हैं (तेतानि दृष्टि न दीयते ) उनपर यह श्रावक अपनी दृष्टि नहीं देता है। उनपर कभी श्रद्धा नहीं लाता है। विशेषार्थ-यद्यपि २५ मल दोषका कथन पहले कह चुके हैं तथापि प्रकरणवश उपयोगी जानकर यहां कहते हैं। तीन मूढतामें यह श्रावक नहीं फंसता है। प्रथम लोकमूढतामें जितने प्रकारकी लोकमें मूढताएं फैली हुई हैं उन सबको मूढता समझकर कभी उनपर श्रद्धा नहीं लाता है । जैसे नदी में स्नानसे व समुद्र में स्नानसे पुण्य होगा, पर्वतसे गिरनेसे व नदीमें पडनेसे पुण्य होगा, अग्निमें सती होनेसे पतिव्रत धर्म पलेगा, थैली पूजनेसे रुपया आयगा, तलवार पूजनेसे विजय होगी, कलम दावात पूजनेसे खूब व्यापार चलेगा, दुकानकी दिहली पूजनेसे बहुत व्यापारी आएंगे, दिनमें भूखा रहनेसे व रात्रिको खानेसे पुण्य होगा, दिवाली में जूआ खेलनेसे बहुत धन मिलेगा, होलीमें भांग पीना धर्म है, होली जलाना व होलीमें बकना धर्म है इत्यादि हजारों लोकसूढता है उन सबको विचारवान दार्शनिक नहीं मानता है। श्लोक-लोकमूढं देवमूढ़ च, अनृत अचेत दिष्ठते । त्यक्तये शुद्धदृष्टी च, शुद्ध सम्यक् रतो सदा ॥ ३८४॥ अन्वयार्थ (लोकमूढं च देवमूढ़ ) लोकमूढताके समान देवमूहताको भी (भनृत अचेत दिष्टते) मिथ्यारूप व अज्ञानरूप ज्ञानी सम्यग्दृष्टी देखता है । इसलिये (शुष्टि च त्य कये) शुद्ध सम्यग्दृष्टी इन
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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