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________________ वारणतरण ॥ ३७७ ॥ सो पाखंड या गुरु मूढता है । सम्यक्ती कभी भी शास्त्र के मार्ग से विरुद्ध चलनेवालोंकी भक्ति नहीं करता है । बहुधा कोई लौकिक आशासे शिथिल श्रद्धावान कुमेषी साधुओं की सेवा करने लग जाता है जो उसके सम्पत भावको मलीन करनेवाली है । सम्यक्ती भलेप्रकार गुरु मूढताके दोष से बचता है। श्लोक - अज्ञान षट्कश्चैव त्यक्तते ये विचक्षणाः । कुदेव कुदेव धारी च, कुलिंगी कुलिंग मान्यते ॥ ३८६ ॥ कुशास्त्रं विकहा रागं च, व्यक्तते शुद्ध दृष्टितं । कशास्त्रं राग वर्द्धते, अभव्यं नरयं पतं ॥ ३८७ ॥ अन्वयार्थ – ( अज्ञान षट्कश्चैव ) अज्ञान स्वरूप छः अनायतन सेवा भी है। (ये विचक्षणः त्यक्तते ) जो चतुर हैं वे इनकी संगति त्याग देते हैं ( कुदेव कुदेव धारी च ) एक तो कुदेव, दूसरे कुदेवोंके भक्त, ( कुलिंगी कुलिंग मान्यते) कुभेषी साधु और उनके मानने वाले (कुशास्त्र विकहा रागं च ) खोटे शास्त्र जिनमें विकथाएं हों व राग वर्द्धक हों व उनके पढने व मानने वाले (शुद्ध दृष्टितं त्यक्तते ) इन छः ही संगति सम्यग्दृष्टी छोड देता है (कुशास्त्रं राग वर्द्धते ) खोटे शास्त्र राग बढानेवाले होते हैं (अभव्यं नरयं पतं ) अभव्य जीवका पतन नरकमें होजाता है। विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन पालनेके लिये जैसे तीन मूढतासे बचना चाहिये वैसे छः अनायतन से भी बचना चाहिये । संगतिका बडा भारी असर बुद्धिपर पडता है इसलिये सम्यग्दर्शनकी रक्षा के हेतु यह सम्हाल बताई है कि वह ऐसी संगति न रक्खे व इस तरह संगति कोई न करे जिससे व्यवहार व निश्चय सम्यक्तमें कोई प्रकारकी बाधा होजावे । धर्मकी वृद्धिके स्थानोंको आयतन कहते हैं। जो इनके प्रतिकूल हों वे अनायतन हैं। सर्वज्ञ वीतराग देवकी संगति जब धर्मायतन है तब रागी द्वेषी देवोंकी संगति अधर्मायतन है। क्योंकि उनकी संगति करने से उनकी भक्तिकी अनुमो दना होना व बुद्धिमें विपरीत भाव होजाना संभव है । इसीतरह रागी द्वेषी देवोंके जो भक्त हैं वे भी धर्मायतन नहीं हैं। जो वीतराग सर्वज्ञ भगवान के भक्त हैं उनकी संगतिसे सच्चा श्रवान ढ ४८ आवकाचार ॥ १७७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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