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________________ वारणतरण होगा परंतु जो उनसे विपरीत देवके श्रद्धानी हों उनकी संगति शिथिलता करनेवाली हैं इससे श्रावकाचार ऐसीन करे जिससे अपने धार्मिक ज्ञान व आचरणमें व श्रद्धामें कमी आजावे । बहुधा रागी देषी देवोंके आराधकोंकी संगतिसे उनके मोक्षमार्गविपरीत सेवाभक्तिकी अनुमोदना करनी पडती है तथा दवाबमें आनकर इच्छा न रहते हुए भी उनके समान भक्ति करने में बाध्य होना पडता है। वे है यदि अनछना पानी पीते हैं तो कभीर अपनेको भी वे लाचार कर सके हैं। वे यदि अभक्ष्य भक्षणY करते हैं तो संगति करनेवालेको भी ऐसे अभक्ष्य खानेमें झुक जाना पडता है। इसी तरह कुलिंगी रागी देषी साधुओं की भी सेवा न करनी चाहिये । वे यदि मोक्षमार्गसे विपरीत जारहे हैं तो उनकी संगतिका ऐसा असर मनमें पड़ेगा कि आप भी सुमार्गसे कुमार्गपर आजायगा व उनके यथार्थ न प्रव. विनेवाले उपदेशोंको सुनकर बुद्धिमें बुरा असर पडनेसे यह व्यवहार सम्पग्दर्शनसे गिर जायगा इसी तरह जो कुगुरुओंके भक्त नरनारी हैं उनकी भी संगति मना है क्योंकि वे अपनी बातोंसे इस श्रद्धालुका मन कुगुरुकी भक्तिमें प्रेरित करके इसी तरह स्त्री कथा, आहार कथा, देश कथा व राजा कथा, ऐसी चार विकथाको पुष्ट करनेवाले, संसारसे राग बढानेवाले शास्त्रोंको पढने सुननेकी संगति भी न करनी चाहिये, न इनके पढने व सुननेवालोंकी संगति करनी चाहिये। परिणामों में शुद्ध सम्यग्दर्शन बना रहे इसलिये ऊपर लिखित छहों अनायतनोंसे बचना चाहिये। और जो सुदेव, सुगुरु व सुशास्त्र हैं व उनके सेवक हैं उनकी संगति रखनी चाहिये, जिससे ज्ञान व श्रद्धान व चारित्रकी दृढ़ता हो। यहां इतना ही प्रयोजन है कि धार्मिक भावों में शिथिलता आवे ऐसा व्यवहार नहीं रखना चाहिये । किंतु लौकिक लेन देन व्यवहारकी यहां कोई मनाई नहीं है। प्रेम व एकता रखनेकी कोई मनाई नहीं है। जैसे एक ही घरमें चार भाई हों । दो तो शुद्ध मर्यादाका भोजन खाते हैं व दोको इसका कोई परहेज न हो तो वे जो शुद्ध भोजन कर४ नेवाले हैं वे अपने दूसरे दोनों भाइयोंके साथ रहते हुए भी ऐसी सम्हाल जरूर रखते हैं कि उनके शुद्ध खानपानके नियममें बाधा नहीं आवे । इसी तरह सम्यग्दृष्टी जगतके मानवों के साथ भाईपनेका व्यवहार रखता है। तौभी अपने अडान ज्ञान चारित्रको मलीन नहीं होने देता है। अपने रत्नध्य धर्मकी भलेप्रकार रक्षा रहे इस तरह वर्तन करता है। यही प्रयोजन छः अनायतनसे बचनेका है। जो ॥३७॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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