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वारणवरण
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है, झूठे मुकद्दमें चलाता है, सचको झूठ कर देता है, झूठको सच कर देता है। मित्र बनके प्रीति श्री व विश्वासका भाजन बनता है परन्तु भीतरसे ठगनेके भाव होते हैं जिससे यह मित्रको भी ठग लेता है। माया चारीको जरा भी दया नहीं होती है। धर्मके नामसे अलग किये हुए पैसेको अपने काममें लेने लगता है। जब कोई मांगता है तो मायाचारीसे ऐसी बातें बनाता है मानो धर्म द्रव्य
इसके पास सुरक्षित ही है। मायाचारी बड़े २ महन्त बनकर भोले भक्तोंको ठगते हैं। उनसे द्रव्य ४ संचय करके मनमाने विषयभोग करते हैं। माया प्राणीके मनको महा नीच बना देती है इसीसे ४ मायाचारी बहुधा तिर्यच आयुका बंध कर लेता है।
श्लोक-माया अनंतानं कृत्वा, असत्ये रागस्तो सदा ।
मनवचनकाय कर्तव्ये, मायानंदी चुतो जड़ः ॥ १६३ ॥ अन्वयार्थ-(अनंतानं माया कृत्वा) अनंतानुबंधी मायाके कारण (सदा) सदा ही (असत्ये रागरतः) मिथ्या पदार्थोक रागमें आसक्त रहता हुआ (मायानंदी) मायाचार करने में आनंद मानता हुमा (मनवचनकाय कर्तव्ये ) मन, वचन, काय द्वारा क्या उचित करने योग्य है उसमें (चुतः) हटा हुआ (जहः) अज्ञानी बना रहता है।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी माया कषाय सम्यक्तकी व शुद्ध स्वरूपके भीतर आचरण कराने की विरोधी है। इस कषायके उदयसे प्राणीके भीतर ऐसा गाढ़ अंधेरा रहता है कि वह शुद्ध आत्माको ॐ न पहचानकर उसमें तो प्रेम नहीं करता किंतु जो शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि मिण माने
हुए व नाशवंत पदार्थ हैं उन हीमें तन्मय रहता हुआ, मन वचन कायके उचित व्यवहारको नहीं करता दुभा धर्मके ज्ञानसे रहित मूर्ख बना रहता है। वह रातदिन अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये मनमें कुटिलता व कपाचा विचार करता है, वचनोंसे कपटभरी बातें करता है, कायसे कपटयुक्त क्रिया करता है, मनमें कुछ और ही होता है, वचनसे कुछ और ही कहता है, कायसे कुछ और ही क्रिया करता है। सरलता व आव धर्मके विरुद्ध उसका व्यवहार हो जाता है। उसको मायाचार करने में ही आनन्द आता है। यदि वह कपटसे किसीको ठग करके कुछ सम्पत्ति पैदा कर लेता है तो वह अपनेको बडा चतुर मानता है और अधिक मायाका जाल फैलानेके लिये करियरहोजाता है।
ॐ ॥१७॥