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धारणतरण
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तरह नष्ट हो जायगा जैसे पानीका बुदबुदा नष्ट होजाता है व घासकी नोकपर रक्खी हुई पानीकी बंद गिर जाती है। जिस युवानी के मदको बनाए रखना चाहता है वह भी मेघ पटलके समान विला जाने वाली चीज है। धनादि सम्पदा भी मेघके समान देखते १ चल देती है । तब यह मायाका बंधन हमारा कुछ हित नहीं करता है । इम मायाचारके तीव्र पाप बांधकर तिर्येच होजाते हैं । सुभाषितरत्नसंदोह में कहते हैं
यां छेदभेददमनांकनदाहदोह वातातपान्नजलशेषवधादिदोषाम् ।
मायावशेन मनुजो जननिन्दनीयां, तिर्यग्गतिं व्रनति तामतिदुःखपूर्णाम् ॥ ५४ ॥
भावार्थ- माया के अधीन होकर मानव अति दुःखोंसे भरी हुई और निंदनीक तिर्यच गतिको प्राप्त हो जाता है, जहां छेदन, भेदन, निरोध, दागा जाना, दुहा जाना, हवा, गरमी, अन्न जल निरोष आदि दोषोंको भोगना पड़ता है।
श्लोक - माया अशुद्ध परिणामं, अशाश्वतं संग संगतेः ।
दुष्टं नष्टं च सद्भावं, माया दुर्गतिकारणं ॥ १६२॥
अन्वयार्थ - ( माया ) मायाचारका भाव (अशुद्ध परिणामं ) आत्माका अशुद्ध मलीन भाव । जो (मशाश्वतं संग संगतेः ) विनाशीक परिग्रहको संगतिले पैदा होता है (दुष्टं) यह दोष पूर्ण है (नष्टं च सदभाव) जहां सत्य भावका नाश है ( माया दुर्गतिकारणं) ऐसी माया दुर्गतिका कारण है ।
विशेषार्थ – आत्माका स्वभाव कषाय रहित वीतराग व शुद्धोपयोग रूप है । भाव कषायके उदयसे पंचक भाव व मलीन भाव होजाता है । जगत के जो २ पदार्थ विनाशीक हैं ऐसे धन, सुवर्ण, राज्य आदिके निमित्तसे उनमें तीव्र लोभ होने से उनकी प्राप्तिके लिये मायाचार के भाव उठाए जाते हैं । यह मायाचारका भाव अत्यन्त दुष्ट है । अति दुष्टता लिये हुये है । दूसरोंको ठगनेका विकराल भाव जहां प्राप्त होजाता है । इस मायाचार के होनेसे स्वाभाविक शांत भाव नष्ट होजाता है । यह माया दुर्गतिका ही कारण है । असत्य व चोरीका जितना कुकर्म है वह मायाके द्वारा ही किया जाता है । मायाचारी झूठा सिक्का चलाता है व झूठे नोट बना लेता है, झूठे दस्तावेज लिख लेता
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