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बारणतरण
४ श्रावकाचार
हम ज्ञानी, हम तपस्वी, हम धर्मात्मा हम बडे योगी, यह अहंभाव मान कषायका ही रूपक है। यह मान कषाय उनको शुद्धात्मीक तत्वमें अनुभवके अयोग्य बना देता है। वे मानके विषको पीये हुए मान कषाय कारक कर्मका विशेष पन्ध कर लेते हैं और नीच गोत्रको बांधकर अनन्त नीच योनियों में जन्म ले लेकर कष्ट पाते हैं । सारसमुच्चय में कहा है
हीनयोनिषु बंभ्रम्य चिरकालमनेकधा । उच्चगोत्रे सकृत्पाते कोऽन्यो मानं समुद्हेत् ॥ २९५ ॥ भावार्थ-यह प्राणी दीर्घकाल तक अनेक प्रकार की हीन योनियों में भ्रमण करता है तब कहीं इसे एक दफे उच्च गोत्रका लाभ होता है। कौन बुद्धिमान इसका अभिमान करेगा, क्योंकि यह
भी छूट जानेवाला है और फिर अनन्त हीन योनियों में पटक देनेवाला है। इसलिये ज्ञानीको क्षण४ भंगुर पर्यायकी प्राप्तिका मान न करके समभाव रखना चाहिये। मान परिणामोंको कठोर बनाकर इस जन्ममें भी बुरा करता है और परलोकमें भी बुरा करता है।
श्लोक-माया असत्य रागं च, अशाश्वतं जलविंदुवत् ।
यौवनं अभ्रपटलस्य, माया बंधन किं कृतं ॥ १६१ ॥ अन्वयार्थ-( माया ) माया कषाय ( असत्य रागं च ) असत्य जगतके पदार्थों में राग करनेसे होती है। जगतके पदार्थोंकी अवस्था (जलविंदुवत् ) जलकी बूंदके समान ( अशाश्वतं ) क्षणभंगुर है । (यौवन) युवानी ( अभ्रपटलस्य) मैचों के समान विला जानेवाली है ( मायाबन्धन ) तेरी मायाके बंधनने (किं कृतं) क्या किया अर्थात् कुछ नहीं किया।
विशेषार्थ-अब अनन्तानुषन्धी माया कषायका वर्णन करते हैं। लोभ कषाय व मान कषाय व क्रोध कषाय वश यह प्राणी माया कषाय कर लेता है। राज्य, धन, संपदा, भूमि, गाय, भैंस, घोडा रथ आदि पदार्थोंके संग्रहकी इच्छासे यह प्राणी मायाचार या कपट करके बहुतोंको ठगता है। कभी मानके बढानेको मायाचार करके अपना महत्व दिखाता है, दूसरोंका ही महत्व घटाता है। कभी किसीपर द्वेष होता है तो उसको हानि पहुंचानेके लिये मायाचार रचता है। मूल हेतु विषयों में अपना राग है। जिस जीवनकी आशासे लक्ष्मी संचय करता है वह जीवन उसी
॥१६॥