SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तारणतरण ॥१६७॥ उनका सर्वस्व हरण करके भी राज्य धनादिका स्वामी होना चाहता । यदि कहीं मान खंडन हुआ तो यह महान क्रोधके वशीभूत हो युद्धादि ठान लेता है, जिससे घोर हिंसा होजाती है । मानीको मानके सामने इतना अंधेरा होजाता है कि उसे धर्म, न्याय, तथा अहिंसादि भावोंकी कुछ परवाह नहीं रहती है। वह घोर स्वार्थी बन जाता है। उसका हृदय महान कृष्ण होजाता है, जिसपर धर्मका उपदेश रंचमात्र भी असर नहीं करता है । श्लोक-मानं रागसम्बधं, तप दारुणं बहुश्रुतं । अनृतं अचेत सद्भावं, कुज्ञानं संसारभाजनं ॥ १६० ॥ अन्वयार्थ – (रागसम्बन्धं मानं ) संसारके रागसे बंधा हुआ मानी जीव ( तप दारुणं ) घोर तपस्याको तथा (बहुश्रुतं ) बहुत शास्त्रज्ञानको करता हुआ भी (अनृतं) मिथ्यात्व ( अचेत ) व अज्ञान (सद्भाव ) की सत्ता रखता है। वह ( कुज्ञानं ) मिथ्याज्ञान ( संसारभाजनं ) उसे संसारका ही पात्र रखता है । विशेषार्थ - जिसके मनमें वैराग्य व आत्मज्ञान नहीं होता है वह प्राणी परलोकमें स्वर्गादिके सुखों के रामसे बंधा हुआ या मोक्षमें भी अनंत इंद्रिय सुख मिलेगा इस भावना से घोर तप करता है । जिनका जैनधर्मका सम्बन्ध नहीं है वे पंच अग्नि तपना हाथ उठाए रखना, जटा बढाना, शीत सहना, उष्ण सहना, आदि भयानक तप तपते हैं। जिनको जैन शास्त्रका सम्बन्ध है वे जैन शास्त्र चारित्र के अनुसार यथार्थ बारह प्रकारके तप पालते हैं, चारित्रमें कोई दोष या अतीचार नहीं लगाते हैं, व्यवहार चारित्र पालते हुए मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायके उदयसे उस तपका ही घमंड कर लेते हैं कि हम बड़े तपस्वी हैं । कोई २ बहुतसी विद्याओंको पढकर अभिमान कर लेते हैं, कोई जैनके शास्त्रोंको पढ़कर हम शास्त्री हैं ऐसा मान कर लेते हैं, कोई तपस्वी मिथ्यात्वी मुनि ग्यारह अंग और नौ पूर्व तक ज्ञानके धारी होजाते हैं, बहु श्रुती होकर मान कर लेते हैं । जिस कषायके नाशके लिये तप करना व शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना उचित था उसी कषायको और बढ़ा लेते हैं । मिथ्यात्व और अज्ञानके होने के कारणसे वे अपना सच्चा हित नहीं कर पाते हैं । वे मोक्षमार्गको न पाकर संसारके ही मार्ग में चलते रहकर संसार में ही जन्म मरण करते रहते हैं । DDDDDODO. श्रावकाचार ॥१६७
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy