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________________ वारणचरण ॥१३६॥ यह अज्ञानी उन अथिर पर्यायोंको थिर मान लेता है । उनके बिगडनेपर या वियोग होनेपर यह महा खेद करता है । पुनः संयोग पानेकी लालसा करता है - आर्तध्यानमें फंस जाता है। इसतरह यह अपनी कुबुद्धिसे अनंतानुबंधी कषायके कारण कुगतिको बांधकर नरक या तिथेच गतिमें जन्मलेकर दीर्घकाल तक मानके फल से नीच, दीन, दुःखी होकर अपमान पाता है फिर नर जन्मका मिलना अति कठिन होजाता है । श्लोक – मानबंध व रागं च, अर्थ विचिंतनं परं । हिंसानंदी च दोषं च स्तेयं दुर्गतिबंधनं ।। १५९ ॥ अन्वयार्थ – ( मानबंधं च रागं च ) मानके बंधमें फंसा हुआ रागी जीव ( परं अर्थ ) दूसरे के धनकी (विचिंतन) खोटी चिंता किया करता है । वह ( हिंसानंदी च दोषं च ) हिँसानंदी दोषका भागी होता है व (स्तेयं ) चौर्यानंदी रौद्रध्यानी होकर ( दुर्गतिबंधनं ) कुगतिका बंध कर लेता है । विशेषार्थ – अभिमानी मानवको अपने मानको बढानेका इतना भारी राग होता है कि वह अपने से दूसरोंको छोटा देखना चाहता है । यदि किसी के पास धन है, या मिलनेवाला है, या राज्यसम्पदा या अन्य सोना, चांदी, जवाहरात आदि पदार्थ हैं यह चाहता है कि वे घट जावे, उनकी हानि होजावे, उनकी चोरी हो जावे तो ठीक है। ऐसा हिंमानंदी और चौर्यानंदी रौद्रध्यान वृथा हो कर करके खोटी गति बांध लेता है । धिक्कार हो इस मान कषायको जिसके कारण धनादि पदार्थोंके संचय करनेमें महान तृष्णा होजाती है। मैं सबसे बड़ा माना जाऊँ यह मान उस अज्ञानी जीवको न्याय व अन्यायके विवेकमे शून्य कर देता है । यह धनका लोभी असत्य बोलकर विश्वा सघात करके घोर हिंसा करके अनाथ बालक व विधवाओंका धन छल बलसे हरण कर व बड़ी चतुराई से उनको अपने वश करके अपने अभिमानको पुष्टि करता है । यह मानी जीव धनवान विधवाओंको फुसलाकर उनके शीलको भी खंडन करता है और उनसे घन भी लूटता है । तथा यही अपनी समाज में मुखिया बनकर बड़ा अभिमान दिखलाता है और यह बताना चाहता है कि यह बडा जातिहितैषी, न्यायवान व धर्मात्मा है। मानके पुष्ट करनेको यह दूसरोंके प्राण लेकर भी श्रावकाचार ॥ १६६॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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