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________________ बारणतरण ॥१६॥ वासनाको पुष्ट करनेवाला होता है। वह मिथ्या ज्ञानको ही विस्तारता है। जो जो उसको पढते हैं व आगे पढ़ेंगे वे सब धर्मसे रुचि हटाकर अधर्म, व संसारमें व जगतके मोहमें फंस जायंगे । उस अश्रावकाचार मानीको इसका कुछ भी ध्यान नहीं होता है। वह काव्य छंद अलंकार आदिमें वाहवाह कराकर, अभिमानको बढाकर अपनेको कृतार्थ मान लेता है। उसका शास्त्रज्ञान उसके लिये विषवत् घात. कका काम करता है। मलीन भावोंसे अशुभ कर्मको बांधकर वह दुर्गतिका पात्र होजाता है। जो आत्मज्ञानसे विमुख करनेवाला व ससारके झूठे मोहमें लिप्त करानेवाला शास्त्र हो वह शास्त्र नहीं है शस्त्र है। ऐसे घातक शास्त्रको रचकर जो विद्वानपनेका अभिमान पुष्ट करते हैं वे अपना संसार अनंतकालके लिये बढा लेते हैं। श्लोक-मानस्य चिंतनं दुर्बुद्धिा, बुद्धिहीनो न संशयः। अनृतं ऋत जानते, दुर्गति पश्यंति ते नरा ॥१५॥ अन्वयार्थ—(मानस्य ) मानका (चिंतनं ) चितवन करना (दुर्बुद्धिः) मिथ्या बुद्धि है। जो मानी है वह (बुद्धिहीनो) बुद्धि रहित है (न संशयः ) इसमें कोई संशयकी बात नहीं है। (अनृतं ) मिथ्याको (ऋत) ॐ सच्चा ( जानते ) जो मानते हैं (ते नरा) वे मानद (दुर्गति) कुगति ( पश्यति ) को देखते हैं। विशेषार्थ-जिनकी बुद्धि निर्मल होती है वे यह समझते हैं कि संसारके सर्व पदार्थ नाशवंत हैं, छुट जानेवाले हैं, इनके संयोग होनेपर अभिमान करना व्यर्थ है। परन्तु जो बुद्धि रहित, विचार रहित हैं वे मान कषायमें फंसे हुए अपनी कुबुद्धिका फल भोगते हैं। वे यही रातदिन सोचते रहते हैं कि मेरा किसी तरह मान खंडन न हो, मैं बड़ा माना जाऊँ, मेरी खूब प्रतिष्टा हो, दूसरे लोग मेरी सेवा करें। सर्व मेरे साथी कुटुम्बी मेरे अनुकूल वर्तन करें। वह यह ध्यान नहीं रखता है कि हरएक जीवका परिणमन उस उसके आधीन है। कोई जीव सदा ही किसीके अनुकूल नहीं चल सक्ता है। इस बातको भूलकर वह सदा ही स्त्रीको, पुत्रको, सेवकको अपनी इच्छाके अनुसार चलाना चाहता है। यदि कदाचित् वे न चले तो मान खंडन समझकर उनपर बहुत क्रोध कर लेता है व उनको बहुत कष्ट देता है। ग्रंथकर्ता कहते हैं कि ऐसा मानी जीव मिथ्याको सत्य मान लेता है। जितनी पर्यायें हैं या अवस्थाएं हैं वे सब क्षणिक हैं-नाशवंत हैं, वस्तुका मूल रूप नहीं है।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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