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________________ कारणवरण ॥१६॥ होगया, रोगग्रसित होगया, वृद्धावस्था होनेपर अशक होगया, कोई भारी अपमान होगया तो श्रावकाचार ॐ उसका मान स्वयं नष्ट होजाता है तब उसके चित्तमें बडी ही लज्जा घर कर लेती है। वह अपने काँके उदयकी ओर न खयाल करके किसी मानव विशेषके ऊपर क्रोध कर लेता है कि इनके बुरा विचारनेसे या इनके बुरे उपायसे ही मेरा नुकशान होगया है। इनकी ईर्षासे ही मेरा पुत्र मर गया है। इनके षड्यंत्रसे मेरा अपमान होगया है। इस तरह अपनी कल्पनासे दूसरोंको दोषी मानकर उनके साथ हिंसानंदी रौद्रध्यान कर लेता है। यह मान वास्तव में झूठा है, क्योंकि उन पदार्थोंको लेकर मान किया जाता है वे पदार्थ एकसे नहीं रहते हैं। तथा मान करना ये भी झूठा है कि जगतमें उससे अधिक धनवान, पुत्रवान, रूपवान, विद्वान लोक पड़े हैं। फिर मैं बडा हूं और छोटे हैं यह मानना मिथ्या है। मानमें मात्र क्षणिक पदार्थोक ममत्वमें मृळवान होकर दूसरोंको नीचा देखा जाता है। यह वास्तवमें मिथ्या राग है। इस मिथ्या आनन्दमें मूढ प्राणी निरन्तर परिग्रहानंद व हिंसानन्द रौद्रध्यानमें फंसा रहता है और तीव्र पाप कर्मका पन्ध करता है। श्लोक-मानी पुन उत्पादंते, कुमते अज्ञानं श्रुतं । मिथ्या माया मुढदृष्टीच, अज्ञानरूपी न संशयः ॥१५७॥ अन्वयार्थ-(मानी) ज्ञानके अहंकारसे पूर्ण मानी विद्वान (पुन) फिर (कुमते) अपनी खोटी बुद्धिसे ( अज्ञानं श्रुतं ) मिथ्या ज्ञानमई शास्त्रको (उत्पादते ) रचता है। उसका रचा शास्त्र (मिथ्या माया * ४ मृढदृष्टी च) मिथ्या होता है, मायाचारसे पूर्ण होता है, मूढ श्रद्धानसे भरा हुआ होता है । (अज्ञानरूपी) अज्ञानमई होता है, (न संशयः) इसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये। विशेषार्थ-मानकी पुष्टि करनेको, राजा महाराजाओंसे व जनतासे मान प्रतिष्ठा चाह करके विद्याके अभिमानमें चूर मानी जीव परको रंजायमानकारी रचना गद्य में या पद्यमें करते हैं। ७ अपनी मिथ्यास्व वासित बुद्धिसे मिथ्यात्व गर्भित ज्ञानको पुष्ट करनेवाले शास्त्रकी रचना करते ४ हैं। उस शास्त्र में बहतसे मिथ्या कथन मिला देते हैं। उसमें परको विषयकषायों में लगाने के लिये ॥१४॥ ४ कपटरूप कथन होता है तथा वह शास्त्र सम्यक् धर्मसे विरोधी मिथ्या धर्मकी या संसारकी विषय-Y
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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