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________________ सारणतरण विशेषार्थ-जिसको संसारके अनित्य पदार्थो में-स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, राज्य, भोगविलासमें तीव अनुराग होगा वह इन पदाथोंको थोडे या बहुत होते हुए अपने मनमें अहंकार कर लेगा। तथा सदा ही यह चिन्तवन करेगा कि मेरेसे अधिक किसीका नाम न हो । वह दूसरोंकी बढती न चाहेगा किन्तु दूसरोंकी हानि विचारेगा। मेरेसे दूसरेके पास अधिक धन व कुटुम्ब आदि न हो ऐसा सोचते हुए दूसरोंकी हानि करके भी अपना लाभ चाहेगा। यदि कदाचित् किसीकी अकस्मात् धनकी व कुटुम्बकी हानि होजावे व कहीं २ अपमान होजावे तो यह सुनकर बहुत प्रसबता मानता है। यदि किसीने कुछ भी अपमान किया तो उसका बदला लेनेका विचार करके उसको हानि पहुंचानेका प्रपंच रचता रहता है। रात दिन जगतकी विभूतिके मोहमें आसक्त हो 'मैं ऐसा मैं ऐसा ऐसा मान भाव रखता हुआव्यवहारके झंझटमें ही फंसा हुआ धर्मकी तरफ निगाह नहीं करता है । तत्वज्ञानीकी संगति नहीं करता है न तत्वज्ञानीके मुख से कुछ उपदेश सुनता है। न उसपर विचार करता है । उसको शुद्ध आत्मस्वरूपका अडान होना अति दुर्लभ हो जाता है। वास्तवमें मान कषायसे प्राणी अन्धा होजाता है। श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चय में कहते हैं महंकारो हि लोकानां विनाशाय न वृद्धये । यथा विनाशकाले स्यात् प्रदीपस्य शिखोज्वला ॥१९॥ ____ भावार्थ-अहंकार लोभोंकी वृद्धि कुछ नहीं करता है किंतु हानि ही करता है जैसे दीपककी शिखा विनाशकालमें ही ऊंची होजाती है। लोक-मानं अशाश्वतं दृष्ट, अनृतं रागनंदितं । असत्ये आनंद मूढस्य, रौदध्यानं च संयुतं ॥ १५६ ॥ अन्वयार्थ-(मानं) मानको (अञ्चावतं) अनित्य (उ) देखा गया है। (अनृतं) यह झूठा है। (रागनंदितं) मात्र रागमें मगन होता है। (असत्ये आनंद मूढस्य) जो मूढ मिथ्या वातोंमें आनंद मानता वह (रौद्रष्यानं च संयुतं) रौदध्यान सहित होता है। विशेषार्थ-मानीका मान सदा बना नहीं रहता है, शीघ्र ही नष्ट होजाता है। जिन पदार्थों के आश्रयसे वह मान करता है वे पदार्थ पिर रहनेवाले नहीं हैं। यदि धन नष्ट होगया, पुत्रका वियोग
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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