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________________ ताणतरण श्रावकाचार ४ रखना चाहता था उनको नष्ट हुआ देखकर महान क्लेश भोगता है। ग्रंथकती कहते हैं कि यह जीव चेतना लक्षणको रखनेगला होकर फिर अचेत व दीन हीन दुखी होरहा है यह बडे खेद की बात है। इसका स्वभाव तो सर्वको साक्षीभूत होकर देखना जानना तथा अपने स्वभावमें तन्मय रहना है। अपने अतीन्द्रिय आनन्दका भोग करना है परंतु यह मोहके मदमें अचेत होकर अपने स्वरूपसे बाहर रहता हुआ बड़ा ही हीन व तुच्छ होरहा है। धिक्कार हो लोभको जो इस जीवन में भी दुःख देता है और आगे भी दुःखका दाता होजाता है। लोभ कषाय वास्तव में अन्य सर्व कषायोंकी उन्नतिका निमित्त कारण है । तथा इसका नाश भी सर्व कषायोंके पीछे होता है इसलिये सबसे पाले ग्रंथकर्ताने अनंतानुबंधी लोभको ही धिक्कारा है। सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैं तिष्ठतु बावधनधान्यपुर.सरार्थाः । संवर्षिताः प्रचुरलोभवशेन पुंसा ॥ कायोऽपि नश्यति निनोऽयमिति प्रचिन्स्य । लोभारिमुनमुपहन्ति विरुद्धतत्त्वं ॥२॥ भावार्थ-अधिक लोभके वशसे जो बाहरी धनधान्य आदि पदार्थ बढ़ा लिये जाते हैं उनकी तो बात ही क्या है, वे तो नष्ट हो ही जाते हैं किंतु जिसको अपना खास मानते हैं ऐसा शरीर भी नष्ट होजाता है-सब छोड़कर जाना होता है। ऐसा विचार कर बुद्धिमान इस आत्माके विरोधी स्वभा. चको रखनेवाले भयानक लोभरूपी शत्रुका नाश ही करते हैं। लोभके नाशका उपाय जिनवाणीका पुन: पुन: मनन कर आत्मा और आत्मासे भिन्न पदाधोका भेदज्ञान है यही उपादेय है। श्लोक-मानं असत्य रागं च, हिंसानंदी च दारुणं । परपंचं चिंत्यते येन, शुद्धतत्वं न पश्यते ॥ १५५ ॥ अन्वयार्थ-(मानं ) अनंतानुबन्धी मान (च असत्य रागं ) भी मिथ्या पदार्थों में रागसे होता है। ४ इस मान कषायसे (दारुणं हिंसानंदी) भयानक हिंसानंदी ध्यान रहता है। (येन ) जिस ध्यानके कारण (सरपंच) प्राणी नानाप्रकार झगड़े व मायाचारको (चिंत्यते) चितवन करता रहता है और (शुद्धतत्वं) शुद्ध आत्मीक तत्वको (न पश्यते) अवलोकन नहीं करता है।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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