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सारणतरण
॥१२॥
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सनी हुई चिन्ताओंके जालोंमें अटका रहता है । अपनी बढती परकी हानि चाहता है। अनेक प्रकार
४श्रावकाचार अपध्यान करता है, परधन व परस्त्रीकी चाह किया करता है, मान पुष्ट करने की अनेक बातें विचारा करता है। खेद है इस अपध्यानसे निरर्थक बहुत पाप बांध लेता है। जैसे तंदुल मच्छ महामच्छके उदरमेंसे जीवित मच्छोंको निकालते देखकर यह भाव किया करता है कि यदि मैं होता तो किसीको नहीं छोडता । वह इस निरर्थक अपध्यानके कारण सातवें नरककी आयु बांधकर सातवें नर्क चला जाता है. वैसे ही यह अज्ञानी मानव वृथा रागके जालमें उलझा हुआ अनंतानुबंधी लोमके कारण नरक व तिर्यचकी आयु बांधकर कुगतिमें गिर जाता है। अतएव इस मिथ्याज्ञानका संहार करना उचित है । और सम्यग्दर्शनका प्राप्त करना उचित है जिसके होते ही भावना बदल जाती है, पर पदार्थके स्वागतकी भावना नहीं रहती है।
श्लोक-अशाश्वते भावनं कृत्वा, अनेककष्ट कृतं सदा ।
चेतना लक्षणो हीनः, लोभं दुर्गतिबन्धनं ॥ १५४ ॥ अन्वयार्थ—(आशाश्वते ) अनित्य जगतके पदार्थों में (भावनं ) भावना ( कृत्वा ) करते करते इस जीवने ( सदा ) सदा ही ( अनेक कष्टं कृतं ) अनेक कष्ट पाए हैं। (चेतना लक्षणो हीनाः) चेतना लक्षणधारी होकर भी हीन होरहा है। जिसके कारण यह दशा है ऐसा (लोमं ) यह लोभ (दुर्गतिबन्धनं ) दुर्गतिका बंध करनेवाला है। . विशेषार्थ-अनंतानुबंधी लोभके कारण यह जीव जिस जिस शरीरमें प्राप्त हुआ वहां उस शरीरमें प्राप्त इंद्रियोंके भोगकी चाहकी दाहमें ही जला किया। यही आशा लगाते हुए भावना करता रहा कि आगामी सुख मिलेगा। एक तो इस चाहके कष्टमें दुःखी हुआ। दूसरे जब मिले हुए इष्ट पदार्थका वियोग होगया तब दुःखी हुआ। तीसरे विषयानुरागसे या विषयों की प्राप्तिके लिये किये गए हिंसादि पापोंसे जो अशुभ कर्म बांधे उनके उदय आनेपर अनेक नरक निगोद व तिर्यचगतिके दुःख भोगे । इसतरह चाहकी दाहसे सदा ही इस जगतमें दुःखी रहा । ये जगतके पदार्थ एकसी स्थितिमें नहीं रहते, इनकी अवस्था बिगड़ जाती है। तब यह अज्ञानी जिनको सदा बनाए