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धारणतरण ॥१३०॥
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सर्व खोकर नरकका पात्र होगया । लोभ मनकी पवित्रताका नाश कर देता है । लोभ न करने योग्य हिंसा, अनृत, चोरी, कुशील व परिग्रहमें वर्तन कर देता है। सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैंशीतो रविर्भवति शीतरुचिः प्रतापी- स्तब्धं नमो जलनिधिः सरिदम्बुतृप्तः ।
स्थायी मरुद्विदहनो दहनोऽपि जातु । लोभनलस्तु न कदाचिददाहकः स्यात् ॥ ६३ ॥
भावार्थ — कदाचित् सूर्य तो ठण्डा होजावे और चन्द्रमा तापकारी होजावे, आकाश जंड होवे, समुद्र नदियों से तृप्त होजावे, पवन स्थिर होजावे, अग्नि शोतल होजावे तथापि लोभकी आग कभी शात नहीं होती है ।
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स्त्री रागमें, राज्यके राग में, बड़े२ युद्ध होजाते हैं। सर्वस्व नाश करनेवाला लोभ है जो अंतमें नरक में डालनेवाला है ।
श्लोक – लोभं कुज्ञान सद्भावं, अनादी भ्रमते भवे ।
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असत्ये लोभ चिंतंते, लोभं दुर्गतिकारणं ।। १५३ ॥
अन्वयार्थ—(कुज्ञान सद्भावं) मिथ्या ज्ञान सहित लोभके कारण यह प्राणी (अनादी) अनादिकाल से (भवे) संसार में (भ्रमते ) भ्रमण करता चला आया है : ( असत्ये ) मिथ्या पदार्थों में (लोभ) राग ( चिंतते ) का विचार किया करता है (लोभ) यह लोभ ( दुर्गतिकारणं ) खोडी गतिका कारण है ।
विशेषार्थ - जहांतक अनंतानुबंधी लोभ मिथ्यादर्शन के साथ में है वहांतक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरण चारित्र इन तीनोंकी ऐकतारूप मोक्षमार्गका लाभ नहीं होता है। वहांतक यह मिथ्याज्ञानी प्राणी संसाराक्षक्त, पर्याय बुद्धि, विषयोंका लोलुपी बना रहता है इसको अतीन्द्रिय सुखके रसका भान नहीं आता है । इस देह, वचन, मनमें आपा मान लेनेसे यह अनादिकालसे संसार में भ्रमता आया है व जबतक सम्यग्दर्शन नहीं होगा भ्रमण करता रहेगा । ऐसा अज्ञानी जीव निरंतर रोग के कारणोंकी ही चिंता करता रहता है। धनके संग्रहकी, शरीर बने रहनेकी, स्त्री पुत्रादिके संयोगकी, मनोज्ञ पदार्थोंके लोभकी, अनिष्ट पदार्थोंके वियोगकी, शत्रुओं के नाशकी, विषय में सहायी मित्रोंके बने रहने की, आगामी उत्तमोत्तम भोग पानेकी, इत्यादि रागसे
श्रावकाचार
1128-12