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सारणवरण
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सि परमात्माको निर्वाण स्वरूप कहते हैं व सिद्धक्षेत्रको निर्वाणपुर कहते हैं । परंतु निश्चयसे देखा जावे तो यह आत्मा आप ही निर्वाण स्वभाव है व आप हो निर्वाणका क्षेत्र है। ज्ञानी सम्पतीको सर्व संकल्प विकल्प त्यागकर निश्चित हो भीतर प्रवेश करके आप अपने ही आत्माका पवित्र दर्शन करके सच्ची भक्ति में लगे रहना चाहिये। तो शीघ्र ही वह सम्पती निर्वाणपुर में चला जाता है।
आरमा तीन भेद
श्लोक - आत्मा त्रिविधिं प्रोक्तं, पर अंतर्बहिरप्ययं ।
परिणामजं च तिष्ठते, तस्यास्ति गुणसंयुतं ॥ ४७ ॥ आत्मा परमात्मतुल्यं च विकरूपं यन्न क्रीयते ।
शुद्धभाव थिरीभूतं, आत्मानं परमात्मनं ॥ ४८ ॥
अन्वयार्थ – ( आत्मा ) आत्मा (त्रिवि) तीन प्रकार (प्रोकं) सिद्धांत में कहा गया है (परु) परमात्मा (अंतर) अंतरात्मा (बहिरण्यम ) बहिरश्मा । ये तीनों भेद ( परिणाममं ) परिणमन या पर्यायोंके द्वारा (तिष्ठते) होते हैं । (तस्य ) इनमें से जो (गुणसंयुतं ) सर्व आत्मीक गुणों से पूर्ण है, जहां (आत्मा च परमात्मा) आत्मा और परमात्मा (तुल्यं ) शुद्ध निश्चय नयसे बराबर हैं (यत् विकर) ऐसा विवार या मेद (न) नहीं (क्रियते ) किया जाता है। (शुद्ध भाव ) शुद्ध स्वभाव में (थिरीभूतं ) थिरता व मग्नताको प्राप्त ( आत्मानं ) आत्माको (परमात्मनं ) परमात्मा कहते हैं ।
विशेषार्थ- शुद्ध निश्वयनयसे या शुद्ध द्रव्यार्थिक दृष्टिसे यदि देखा जावे तो सर्व ई। सिद्ध पा संसारी आत्माएं एक समान शुद्ध ही देखने में आएगी । परंतु यदि भिन्न २ अवस्था जो आत्मा के साथ संयोग प्राप्त कमोंके निमित्तसे हो रही है उसकी अपेक्षा से देखा जाये तो इस अशुद्ध निश्वयः नय अथवा अव्यवहार नय या पर्यायार्थिक नयसे जगत के भीतर आत्माकी तीन अवस्थाएं दिखलाई पड़ेंगी। परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा शुद्ध सिद्ध कृतकृत्य आत्माको परमात्मा कहते हैं। जो अंतरंग में आत्माको आत्मा, आत्मा के साथ संयोग प्राप्त द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मको अनारमा
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