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श्रावकाचाव
कारणवरण
अनुभव करता है ऐसा सम्यग्दृष्टी जीव तत्वज्ञानी अंतरात्मा है। जो आत्मा और अनास्माकी यथार्थ भेद बुद्धिसे रहित है । संसारके विषयों में तन्मय है। शुद्ध आत्माके अनुभवसे शून्य है। आस्माके स्वभावसे विपरीत किंचित् भी विभावको पा परमाणु मात्र भी पर वस्तुको आत्माकी जो मानता है वह बहिरात्मा अज्ञानी मियादृष्टी है। चौदह गुणस्थानोंकी अपेक्षा विचार किया जावे तो तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली और अयोगकेवली अरहंत भगवान परमात्मा हैं। अविरत सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानसे लेकर क्षीण मोह बारह गुणस्थान पर्यत अंतरात्मा हैं। इनमेंसे अविरत सम्यग्दृष्टी जघन्य अंतरात्मा हैं, देशविरत व प्रमत्तविरत दो गुणस्थान धारी मध्यम अंतरात्मा हैं, सातवेंसे बारहवें तक शुद्धोपयोगी उत्कृष्ट अंतरात्मा हैं। गुणस्थानोंसे बाहर श्री सिद्धभगवान तो साक्षात् शरीरादि रहित परमात्मा हैं। आत्मामें परिणमन शक्ति है। सर्वथा कूटस्थ नित्य नहीं है। आत्मामें वैभाविक शक्ति भी है जिससे यह कर्मके उदयके निमित्तसे स्वभावसे विभावरूप परिणमन कर जाता है। जैसे जल में उष्णरूप होनेकी शक्ति है। अनिका निमित्त मिलने पर उष्णरूप परिणमन कर जाता है। निमित्त न हो तो स्वभाव में शीतल ही बना रहता है। अना. दिकालसे संसारमें संसारी आत्माएं कमों के साथ दूध पानीके समान मिली हुई चली आरही हैं। कोके उदय जनित भावोंका परिणमन होता रहता है। जहांतक मिथ्यारव कर्मका, अनंतानुबंधी
कषायका व सम्यक् मिथ्यात्वका उदय है ऐसे मिथ्यात्व, सासादन व मिश्र गुणस्थानों में शुद्ध खभा४ वमें रंचमात्र भी परिणमन नहीं है, अशुद्ध या मिश्रित भावों में परिणममन है। अतएव इन तीन
गुणस्थान वालोंको बहिरात्मा कहते हैं। जहां सम्यग्दर्शनका लाभ होगया वहां शुद्ध स्वभावमें
परिणमनकी शक्ति प्राप्त होगई परंतु चारित्र मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय ४ कर्मके उदयसे यथाख्यात चारित्र तथा केवलज्ञान प्रगट नहीं हुआ वहांतक अंतरात्मा रूप परिणमन
है। चार घातीय कमौके नाश होनेपर आत्मा भावोंकी अपेक्षा सर्वज्ञ वीतराग आनन्दमय होजाता
है तब आत्माका परमात्मा रूप यथावत् परिणमन है। इसे परमात्मारूप परिणमन कहते हैं। ॐ परमात्मा सम्पूर्ण आत्मीक गुणोंसे परिपूर्ण है। साधक अवस्थामें छठे गुणस्थान पर्यंत यह
विचार किया जाता था कि मेरा आत्मा शुख निश्चयनयसे परमात्माके तुल्य है। अब जब परमात्म