SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वारणतरण १५४ ॥ पद प्राप्त होगया तो वहां यह विकल्प बिलकुल भी नहीं रहा । निर्विकल्प वीतराग परमानन्दमय शुद्ध स्वभावमें जो स्थिर होगया है उसे ही परमात्मा कहते हैं । समाधिशतक में पूज्यपादस्वामी कहते हैं— बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्म विभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मलः ॥ ५ ॥ निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुरव्ययः । परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः ॥ ६ ॥ भावार्थ - जिसकी शरीर आदि में अर्थात् सर्व आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थोंमें या भावों में आत्मापने की भ्रांति है वह जीव बहिरात्मा है । जिसके भीतर से यह भ्रांति निकल गई है कि चित्तके दोष रागादि आत्मा हूँ अर्थात् जो कर्म सम्बन्धी रचना से आपको भिन्न अनुभव करता है वह अंतरात्मा है । जो अति पवित्र कर्म कलंक रहित आत्मा है वह परमात्मा है । परमात्मा के अनेक नाम - कर्ममल रहिन है इससे निर्मल है, सर्व कर्म रहित है इससे केवल है, परम शुद्ध स्वभावको सिद्ध कर लिया है इससे सिद्ध है, सर्व कर्मादिसे जुदा है इससे विविक्त है, आप आपका स्वामी स्वाधीन है इससे प्रभु है; कभी स्वभावसे रहित न होगा इसी से अक्षय है, उत्कृष्टादि पदमें बिराजित है इससे परमेष्ठी है, संसारी जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट है इससे परात्मा है या परमात्मा है । इन्द्रादिको असम्भव ऐसे अतरंग और बहिरंग परम ऐश्वर्य सहित है इससे वह ईश्वर है, आत्मा के शत्रु रागादि व कर्मबन्धको जिसने जीत लिया है। इसलिये वह जिन है । प्रयोजन यह है कि मुमुक्षु जीवको बहिरात्म बुद्धि त्यांगकर अंतरात्मा होकर परमात्माका ध्यान करना योग्य है । श्लोक-विज्ञानं यो विजानन्ते, अप्पा परपरीक्षया । परिचये अप्प सद्भावं, अन्तरात्मा परीक्षयेत् ॥ ४९ ॥ अन्वयार्थ - (यो ) जो कोई ( अप्पापर) आस्मा और परकी ( परीक्षया) परीक्षा करके (विज्ञानं ) दोनोंके विशेष ज्ञानको अर्थात् भेदविज्ञानको (विज्ञानन्ते ) विशेष सूक्ष्मता से जनता है। तथा तथा (अल्प सद्भावं ) आत्मा के सत्तारूप शुद्ध स्वभावका ( परिचये ) परिचय पाता है । (अंतरात्मा ) वहीं अंतरात्मा है ऐसा (परीक्षयेत् ) पहचानना चाहिये । श्रावकाचार ॥ ५४ ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy