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श्रावकाचार
विशेषार्थ-यहां अंतरास्माका स्वरूप बताया है। आत्मा और कर्म पुद्गले शरीरादि दूर वारणवरण
पानीकी तरह मिल रहे हैं या पानी और मिट्टीके समान एकक हो रहे हैं। लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न पहचानना चाहिये । आस्माका निज स्वभाव ज्ञान, दर्शन, सुख, धार्यमय अमूर्तीक पवित्र है तथा कर्म आदि पुद्गल सब मूर्तीक स्पर्श, रस,गंध, वर्णमय चेतनता रहित हैं व रागवेषादि विकार के कारण हैं। इस तरह अपनी बुद्धिसे प्रमाण ज्ञानसे व नपके द्वारा दोनोंको भिन्नर कर जो आत्मा
नहीं है सो मैं नहीं इस तरह परसे उदासीन होकर जो अपने आत्माके यथार्थ शुद्ध सरूपको ४. पहचानता है और उसीके स्वादकी रुचि प्राप्त करता है उसे अंतरात्मा जानना चाहिये।
श्लोक-बहिरप्पा पुद्गलं दृष्ट्वा , रचनं आनंद भावना ।
परपंच येन तिष्ठते, संसारे स्थितिवर्द्धनं ॥ ५० ॥ अन्वयार्थ-(बहिरप्पा ) बहिरास्मा (पुद्गलं ) पुदलको ( दृष्ट्वा ) देखकर (आनन्द भावना ) आनमकी भावनाको (रचन) रचता है (येन) इस जड़में मग्नताकी भावनासे (परपंचं) जगतका प्रपंच (तिष्ठ) बना रहता है तथा (संसारे स्थिति) संसारमें उसकी स्थिति (बर्द्धनं ) बढ़ती जाती है।
विशेषार्थ-शरीर पुद्गल है, पांच इंद्रियों के द्वारा भोगने योग्य विषय, स्त्रीका तन, भोजन, सुगंध, सुन्दर चेतन व अचेतन पदार्थ, नानाप्रकारके मनोहर गान आदि सब पुद्गल हैं। इंद्रियों के द्वारा यही पदार्थ देखने में जानने में आते हैं इनको मनोज्ञ देखकर मनमें रंजायमान होजाता है और अमनोज्ञ देखकर मनमें क्लेशित होजाता है। तब जो २ पदार्थ इस अज्ञानीको दृष्ट लगते हैं उनकी प्राप्तिके लिये और जो १ अनिष्ट लगते हैं उनसे बचनेके लिये नानाप्रकार मायाचार व आरंभ व हिंसादि पापोंमें फंसा रहता है। विषयलम्पटी होकर अन्याय सेवन करता है, अभक्षा भक्षण करता है, रागी द्वेषी देवोंकी आराधना करता है। दूसरोंको घोर कष्ट पहुंचा करके व ठग करके भी अपना स्वार्थ सिद्ध करता है, घोर पापोंमें मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होनेसे वह दीर्घ स्थितिबाले कर्मों को * बांधता रहता है जिससे उसके संसारकी स्थिति बढती जाती है।