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श्लोक-बहिरप्पा परपंचार्थ, व्यक्तंति प्रविचक्षणाः । अप्पाधर्म पयं तुल्यं, देवदेवं नमस्कृतं ॥ ५१ ॥
अन्वयार्थ ~~~( बहिरप्पा ) बहिरात्मा (परपंचार्थ) जगतके प्रपंचके कारण (पयं तुल्यं ) ! दूधके तुल्य ( अप्पा धर्म ) आत्म स्वभाव रूपी धर्मको ( देवदेवं नमस्कृतं ) जिसको देवोंके देव इन्द्रादि नमस्कार करते हैं (त्यकंति ) छोड़ बैठते हैं ।
विशेषार्थ बहिरात्मा अज्ञानी इतने मूर्ख होते हैं कि अपने हितकारी धर्मकी और पीठ देकर उसको छोड़ बैठते हैं । जैसे कोई मूर्ख पुष्टिकारक दूधको जो पीनेको मिल रहा है छोड़कर चला जा तथा काकके समान अशुद्ध मलके स्वादमें रंजायमान होजावे वैसे ही यह आत्मीक स्वभावरूप जो अभेद रत्नत्रयमई धर्म है उसकी तरफसे बेखबर रहता है । यह धर्म वह है कि जो इसको धारते हैं वा जो इसके स्वामी हैं ऐसे अरहंत सिडको व साधुओंको इन्द्रादि देव नमन करते हैं, जो समयकदृष्टी श्रावक हैं या अव्रती हैं उनकी भी भक्ति या सेवा इन्द्रादि देव करते हैं। जिस आत्मीक धर्मसे संसार के क्लेश मिट जाते हैं व आत्मा परमात्मा हो जाता है व जिससे इस जन्ममें भी सुख शांति मिलती है उसको छोड़कर मलके समान विषयोंके जालमें बहिरात्मा पड़ जाता है । उसको जगतका प्रपंच ही अच्छा लगता है । वह इंद्रियोंके भोगों में व स्त्री पुत्रादिमें व लोगों से प्रतिष्ठा पाने में व स्वार्थ सिद्ध करनेमें ही मगन रहता है। ज्ञान वैराग्यकी बात उसको विष तुल्य भासती है । संसारक विकथा उसको अमृत समान मालूम होती है ।
सुदेव कुदेवका स्वरूप ।
श्लोक - कुदेवं प्रोक्तं जैनैः, रागादिदोषसंयुतं ।
ज्ञान त्रिति संपूर्ण, ज्ञानं चैव न दिष्टते ॥ ५२ ॥
अन्वयार्थ -- ( रागादि दोष संयुतं ) जो राग द्वेष आदि दोषोंसे पूर्ण हैं ( कुज्ञान त्रिति संपूर्ण ) व तीम
श्रावका कार
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