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________________ वारणवरण हैतथापि स्वभावसे देखा जाय तो इसके साथ पौलिक कोका कोई सम्बन्ध नहीं, यह तो रूप, श्रावकाचार रस, गंध, स्पर्श रहित अमूर्तीक है। यह शरीरके आकार परत ज्ञानाकार है। मूर्तीके आकार रहित है। ज्ञानी महात्मा अपने ही शरीरको मंदिर मानकर उसमें परमात्माकी परम शांत ज्ञानमई स्फटिक मूर्तिवत् आकृतिका दर्शन करके परम संतोषित होते हैं। उसकी भावना भाते भाते कभी उसी स्वरूपमें एकाग्र होजाते हैं और स्वानुभवका आनन्द लेते हैं। यही मोक्षका उपाय है। पोगसारमें कहते हैं अप्पसरूवह जो रमह छंडाव सहुवबहारू । सो सम्माइट्ठी हवा लहु पाव भापारु ॥ ॥ भावार्थ-जो सर्व व्यवहार छोड़कर अपने आपके शुद्ध स्वरूपमें रमण करता है वही सम्यग्दृष्टी y जीव शीघ्र ही संसारसे पार होजाता है। श्ले.फ-अहेतदेव तिष्टते, ह्रींकारेन शाश्वतं । ॐवं ऊर्ध सद्भावं, निर्वानं शाश्वतं पदं ॥ ४६ ॥ __ अन्वयार्थ-(हकारेन ) ही इस मंत्र पदमें ( शाश्वतं ) सदा ही (भरहन्तदेव) अरहन्तदेव चौवीस तीर्थकर स्वरूप (तिष्टते) विराजमान हैं। (ॐ)ॐ इस मंत्र पदके भीतर (ऊर्षे) श्रेष्ठ (सदभाव) सत्तारूप आत्मा पदार्थ (निर्वानं) निर्वाण स्वरूप या सिद्ध स्वरूप (शाश्वत पर्द) अविनाशी पद धारी विराजमान हैं। विशेषार्थ-यहां फिर भी यह स्मरण कराया है कि ॐहमंत्र पदों का ध्यान आत्माकीभावनाके लिये उपयोगी है। पहिले कहा जांचुका है कि ही में चौधीस तीर्थकर व ॐ में अरहतादि पांचो परमेष्ठी गर्भित हैं। इन सबमें यदि निश्चयसे देखा जाये तो एक अविनाशी मोक्षपदका धारी सत्तारूप पदार्थ शुद्ध आत्मा विराजमान है। तात्पर्य यह है कि इन मंत्र पदोंका आश्रय लेकर हमको सर्व विकार रहित शुद्ध आस्माका ही चिंतवन, मनन व अनुभव करना चाहिये। निर्वाण कोई पर वस्तु नहीं है जिसे कहीं प्राप्त करना है, निर्वाण न कोई पर क्षेत्र है जहां कहीं इसे जाना है। निर्वाण तो इस अपने भास्माका ही स्वयं स्वभाव है व आत्मा ही निर्वाणक्षेत्र है। व्यवहारसे
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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