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________________ करणार ॥३०॥ व सम्यक्तके सन्मुखको, व्यवहार सम्यग्दृष्टीको भव्य कहा है। जिसको शुर आत्माकी बचिव आत्माके पवित्र करनेका चाव है तथा जिसको शुद्ध आत्माकी रुचि न होकर विषयोंके मोगकी रुचि है उसको अभव्य कहा है। भव्य जीव देवपूजादि छहों कार्याका यथार्थ आशय समझता है कि ये मात्र आलम्बनरूप हैं, शुभ रागरूप हैं, परन्तु उनहीके सहारेसे शुख भावका लाभ होसकेगा ऐसा जानता है इसलिये शुद्ध भावोंकी खोज करता हुआ व शुर भावोंकी तरफ हष्टि रखता हुआ वह ज्ञानी देवपूजादि छः काँको करता है तो उसे इनके भीतरसे स्वात्मानुभव होजाता है। देवपूजामें जिनेन्द्र गुणगान करते हुए जब उपयोग शुद्ध गुणोंके मननमें तन्मय होजाता है तो तुरत शुद्ध भाव जग जाता है। गुरुभक्ति करते हुए आस्मध्यानी गुरुकी संगतिसे भावोंमें आत्मध्यान जग उठता है। शास्त्र स्वाध्यायमें, मुख्यतासे अध्यात्म ग्रंथोंको पढनेसे भावोंमें आस्मानुभव झलक जाता है। संयमका विचार करते हुए, प्रतिदिन सवेरे १७नियम लेते हुए ज्ञानीको भात्मसंयमका * भाव आजाता है। प्रतिदिन सबेरे व शाम सामायिक करते हुए साक्षात् आस्मानुभव प्राप्त कर लिया जाता है। सम्यग्दृष्टीके भावका, तीन प्रकार पात्रोंमेंसे किसीको दान देते हुए, उनकी सम्मु. खतासे रत्नत्रयमें भक्ति होते होते अभेद रतन्त्रय या स्वात्मानुभूतिमें पहुँच जाना होजाता है। भव्य जीव पुण्यकी प्राप्तिका आशय बिलकुल नहीं रखता है। केवल शुद्धोपयोगके अभिप्रायसे इन * छ. कोको साधता है। इसी कारण उसके जितने अंश वीतरागता होती है उतने अंश मावसे बंध न होकर कर्मकी निर्जरा होती है व जितने अंश सरागता होती है उतने अंश कर्मका बंध होता है। खेद है मिथ्यादृष्टी जीव इस रहस्यको नहीं पहचानता है। वह लोभके लिये लाभ रहित देवकी भक्ति आदि करता हुआ मानो मैल लपटने के लिये मैलको जलसे धोता है, वह संसारमार्गी ही है। पुण्य बांधकर फिर देव होकर फिर एकेंद्रियादि पर्यायोंमें कलनेवाला है। श्री पूज्यपादस्वामीने इष्टोपदेशमें कहा है स्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामति विलंपति ॥ १६॥ भावार्थ-जो कोई धन रहित पुरुष इसलिये धन कमावे कि धन कमाकर दान करूंगा व दानसे पुण्य बांधंगा तो वह ऐसा ही मूर्ख है जो अपने शरीरको इसलिये कीचडसे लपटे कि फिर स्नान करके रसाफ कर लूंगा। अभव्यकी क्रिया जब संसारवर्डकहैतब भव्यकी संसार छेदक है।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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