________________
कारणवरण
श्रावकाचार
श्रावकके छः नित्यकर्म। श्लोक-अव्रतं श्रावकं येन, पदकर्म प्रतिपालए ।
षटकर्म द्रविधश्चैव, शुद्ध अशुद्ध पश्यते ॥ ३०७ ॥ अन्वयार्थ—(अव्रतं श्रावकं येन) जो अव्रती श्रावक है उसको भी (षटकम प्रतिपालए ) छ: नित्यकर्म पालने चाहिये (षट्कम द्रविधश्चैव ) वे छः कर्म दो प्रकारसे हैं (शुद्ध अशुद्ध पश्यते) कोई शुद्ध कोई अशुद्ध दिखाई पडते हैं।
विशेषार्थ-श्रावकोंको व्रतोंका नियम न होने पर भी सम्यग्दर्शनकी दृढताके लिये तथा सम्यकचारित्रपर आरूढ होनेकी तैयारी करने के लिये नित्य छः कर्म पालने चाहिये-देव पूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान । इनके पालनसे परिणामों में निर्मलता व आत्मभावना होती है, कषायोंकी मंदता होती है, परिणाम उदार होते हैं, जगतके मानव इन कर्माको करते हुए दिखलाई पडते हैं। कोई तो शुद्ध रीतिसे पालते हैं, कोई अशुद्ध रीतिसे पालते हैं। मिथ्यात्व सहित सर्व कर्म अशुद्ध हैं। सम्यक्त सहित सर्व कर्म शुद्ध हैं। जहांपर यह आशय या अभिप्राय है कि मुझे पुण्यका लाभ हो जिससे धन, पुत्र, राज्य, स्वर्गके भोग, देवियोंका समागम प्राप्त हो वहांपर बाहरमें यथार्थ
दीखनेवाले छ: कर्म किये हुए भी अशुद्ध कहे जाते हैं। क्योंकि अभिप्रायकी मलीनता साथमें है। ॐ जहां आशय मात्र आत्मशुद्धिका है, निर्वाणका है-वहां ये षट्कर्म शुद्ध कहे जाते हैं। क्योंकि वह ज्ञानी इन छ: कमों में भी शुद्ध आत्मीक भावकी खोज कर रहा है।
श्लोक-शुद्ध षट्कर्म जानीते, भव्यजीव रतो सदा।
अशुद्धं षट्कर्म रत, अभव्य जीवन संशयः॥ ३०८॥ अन्वयार्थ ( भव्य जीव ) भव्य जीव जो मोक्षगामी है सम्यक्ती है वह (शुद्ध षटकर्म जानीते) शुद्ध छ: काँको समझता है और (सदा रतः) निरंतर उनके पालनमें लीन रहता है (अशुद्ध षट्कर्म रत) जो 1 अशुद्ध षट्कर्ममें लीन है वह (मभव्य जीव न संशयः) अभव्य जीव है इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-यहां भव्य अभव्यका स्थूलपने कथन है, सूक्ष्मदृष्टिसे कथन नहीं है। यहां सम्यक्तीको