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________________ । अन्वयार्थ-(कुगुरु ) अपात्र जो कुगुरु हैं वे (कुदेव उक्तं च ) कुदेवोंकी भक्तिका उपदेश देते हैं पारणवरण: (कुधर्म सदा प्रोक्तं ) सदा ही कुधर्मका व्याख्यान करते हैं (कुलिंगी निनद्रोही च) वे मिथ्यात्वके धारी हैं ॥२७॥ व जिनेन्द्र के अनेकांत मतसे देष करनेवाले हैं (मिथ्या दुर्गति भाजन) मिथ्यात्वके कारण दुर्गतिके * पात्र हैं। (तस्य दानं च विनयं च) ऐसे कुगुरुको दान देना व उसकी विनय करना (कुज्ञान मुढ दृष्टितं): मिथ्या ज्ञान व मूढ श्रद्धा है (येन तस्य दान चिंतनं ) क्योंकि उनके दान देनेकी चिंता (संसारे दुःखदारुणं) संसारमें भयानक दुःखोंका कारण है। विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि जो कुगुरु हैं वे ही अपात्र हैं जिनकी कथा पहले भी बहुत कर चुके हैं। ये कुगुरु स्वयं भी रागी देषी देवोंकी आराधना करते हैं व रागद्वेष पूर्ण धर्मकी सेवा। करते हैं व दुसरोंको भी मिथ्या देव व मिथ्या धर्मकी सेवाका उपदेश करते हैं उनका भेष यथार्थ जिनेन्द्र के मार्गके भेषसे विपरीत है तथा वे जिनधर्मका स्वरूप ठीक न समझकर अपने अज्ञानसे जिनमतसे द्वेष रखते हैं। एकांतकी पक्ष लेकर मिथ्यात्वके योगसे स्वयं दुर्गति जाते हैं तब जो उनकी भक्ति करेंगे, विनयपूर्वक दान देंगे उन्होंने वास्तव में मिथ्यात्वकी भक्ति की, मिथ्यादर्शन व मिथ्या ज्ञानको ही पुष्ट किया। इसलिये उनको दान देनेकी चिंतासे जो भावोंकी परिणति होती है वह अशुभ ही है तथा पापको बांधनेवाली है, नर्क निगोदके भीतर पटकनेवाली है। भक्ति वास्तव में उसीकी ही करनी योग्य है जिसमें भक्तियोग्य गुण हों। भक्तियोग तो रत्नत्रय धर्म है। जहां ये पाए जावेंगे वे पात्र ही भक्ति करने योग्य हैं। जब रत्नत्रयसे विरुद्ध धर्म अमा. ननीय है तब उस विरुद्ध धर्मके धारी माननीय कैसे होसक्ते हैं। इसलिये श्रावकको विवेकपूर्वक दान करना चाहिये । जो जिन-शास्त्रोक्त साधुका व श्रावकका आचरण पालनेवाले हैं व जिन शास्त्रोक्त श्रद्धा रखनेवाले हैं उनको ही पात्र मानकर उनको यथायोग्य भक्ति सहित दान करना योग्य है। उनकी भक्ति वास्तवमें रत्नत्रयकी ही भक्ति है अतएव हितकारी है। अपात्रोंकी भक्ति अधर्मकी भक्ति है अतएव पाप बंधकारी व मिथ्या मार्गकी अनुमोदना करानेवाली है। भक्तिपूर्वक यथार्थ चारित्रवानको ही दान देना योग्य है यह तात्पर्य है। विनय योग्य वे ही पात्र हैं।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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