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________________ मो.मा. प्रकाश तौ चारित्रके तेरह भेदनिविषै महाबलादि कैलें कहे हैं। ताका समाधान' यह व्यवहारचारित्र कला है । व्यवहार नाम उपचारका है । सो महाव्रतादिक भए ही वीतरागचारित्र हो है । ऐसा सम्बन्ध जानि महात्रतादिविषै चारित्रका उपचार किया है । निश्चयकरि निःकषायभाव है, सो ही सांचा चारित्र है । या प्रकार संवरका कारणनिकों अन्यथा | जानता सन्ता सांचा श्रद्धानी न हो है । बहुरि यह अनशनादि तपतैं निर्जरा माने है । सो केवल बाह्यतप ही लौ किए निर्जरा होय नाहीं । बाह्यतप तो शुद्धोपयोग बधावने के अर्थ की| जिए है। शुद्धोपयोग निर्जराका कारण है । तातै उपचारकरि तपकों भी निर्जराका कारण कया है । जो बाह्य दुख सहना ही निर्जराका कारण होय, तौ तियंत्रादि भी भूख तुषादि सह | हैं | तब वह कहें है - स्वाधीनपर्ने धर्मबुद्धितै उपवासादिरूप तप करै, ताकै निर्जरा हो है । ताका समाधान - धर्मबुद्धि बाह्य उपवासादिक तो किए, बहुरि तहां उपयोग अशुभ शुभ शुद्धरूप जैसे परिणमै तैसें परिणमो । घने उपवासादि किए घनी निर्जरा होय, थोरे किए थोरी निर्जरा होय । जो ऐसें नियम ठहरै तौ उपवासादिक ही मुख्य निर्जराका कारण ठहरै । सो तौ बने नाहीं । परिणाम दुष्ट भए उपवासादिकतैं निर्जरा होनी कैसे संभत्रै । बहुरि जो कहिए- जैसा अशुभ शुभ शुद्धरूप उपयोग परिणमै ताके अनुसार बंधनिर्जरा है । तो उपवा ३४६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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