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श्रावकार
प्रकाशये) ऐसा अहिंसाधर्म प्रकाशित करता है (शुद्धतत्वं च साई) जो धर्म शुद्ध वस्तुस्वरूपको बतानेकारणवरण
Vवाला है इस तरह (नराः अनस्तमितं रताः) मानवोंको रात्रिभोजन त्यागमें रत होना योग्य है। ॥२९॥
विशेषार्थ-अब ग्रन्थकर्ता रात्रि भोजन त्यागके सम्बन्धमें कहते हैं कि धर्मात्मा श्रावकोंको जो अहिंसाधर्मके प्रेमी हैं, जो चाहते हैं कि वृथा ही जंतुओंका वध न हो, यह उचित है कि रात्रिको भोजन न करें। दो घडी अर्थात् ४८ मिनट सूर्यके अस्तमें शेष रहे तब भोजनपान समाप्त करलें व दो घडी दिन निकले विना भोजनपान प्रारम्भ न करे। शुद्ध वस्तु स्वरूपको बतानेवाला यह जैनधर्म हिंसासे बचने के लिये ऐसा उपदेश करता है। रात्रिको अंधेरा रहता है । यदि दीपक जलाया जावे व उस प्रकाशमें रसोई बनाई जावे व खाई जावे तो उसमें अनेक चौइंद्रिय प्राणियोंका वध होगा, जो दिनमें विश्राम करते हैं व रात्रिको उडा करते हैं। अहिंसा व्रतकी पूर्णताके लिये रात्रिको पूर्ण उपवास पालना चाहिये । पुरुषार्थसिजयुपायमें कहा है
रात्रौ मुंजानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा। हिंसाविरतस्तस्मात्त्यक्तव्या रात्रिमुक्तिरपि ॥ १२९॥ अर्कालोकेन विना भुनानः परिहरेत् कथं हिंसां । अपि बोधितः प्रदीप भोज्यजुषां सूक्ष्मजंतूनां ॥ १३ ॥
भावार्थ-जो रात्रिको भोजन करते हैं उनको नियमसे हिंसा करनी पडती है इसलिये जो हिंसासे बचना चाहते हैं उनको रात्रिको भोजन भी न करना चाहिये । सूर्यके प्रकाश विना खाते हुए हिंसा कैसे छोडी जासक्ती है। क्योंकि प्रदीपके जलानेपर अनेक छोटे २ जन्तु आजावेंगे व उनका भोजनमें सम्बन्ध होनेसे उनकी हिंसा होगी व उनका कलेवर भोजनके साथ खाया जायगा।
विवेकी गृहस्थ रात्रिको जल भी नहीं लेते हैंतथापि गृहस्थोंकोरात्रिभोजन त्यागका यन करना उचित है । खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय, चार प्रकारका आहार है-अभ्यास करनेवाला यथाशक्ति त्याग करे । उद्यम इस बातका करे कि रात्रिको जल भी न लेना पडे तो उत्तम है।रात्रिको पूर्ण खानपानके त्याग करनेसे वर्ष में छ मासके उपवासका फल होता है।
श्लोक-अनस्तमितं कृतं येन, मन वच काय योगभिः ।
___ शुद्ध भावं च भावं च, अनस्तमितं प्रतिपालए ॥ २९८॥ अन्वयार्थ-(येन) जिसने (मन वंच काय योगभिः) मन वचन काय तीनों योगोंके द्वारा (अनस्वामित
॥२९॥