________________
भारणवरण
R९॥
कृत) रात्रि भोजनका त्याग कर दिया (शुद्ध भावं च भावं च) उसीने श भावोंकी भावना भा (मनस्तमितं प्रतिपालए) और रात्रिभोजन त्याग व्रत प्रतिपालन किया है
विशेषार्थ-रात्रिको भोजनकी इच्छा मनसे भी न करे, न रात्रिभोजन सम्बन्धी वचन बोले न कायसे रात्रिभोजन करे । मन वचन कायसै जिसने रात्रिभोजनका त्याग किया उसने अहिंसा-१ धर्मको यथार्थ पालन किया है। धर्मात्मा श्रावकोंको उचित है कि रात्रिको भोजनका सर्व विकल्प मेटकर परम सन्तोष रक्खें, और धर्मध्यानमें समय लगावें। शुद्ध भावकी भावना करें, आत्मतत्वका चितवन करें। भोजनादि कुकथाको भी त्यागे । पूर्णपने इस रात्रिभोजन त्याग व्रतको पालें।
जैन गृहस्थोंके अहिंसाधर्म व वीतराग धर्मकी यही शोभा है जो सूर्यप्रकाशमें ही भोजनपान कर लिया जावे। भोजन सम्बन्धी आरम्भ भी दिनमें किया जावे। दिन में ही रसोई तैयार की ४ जावे । दिनमें ही खाया खिलाया जाये । सम्यकी स्वभावसे ही दयालु होता है। वह यह उद्यम रखता है कि जितना अधिक हिंसासे बचा जावे उतना धर्म है।
श्लोक-अनस्तमित्वं पालंते, वासी भोजन त्यक्तये ।
रात्रि भोजनं कृतं येन, भुक्तं तस्य न शुद्धए ॥ २९९ ॥ अन्वयार्थ-(मनस्तमित्वं पालते ) जो रात्रिभोजन त्याग व्रत पालते हैं वे (वासी भोजन त्यक्तये) रात्रि वासी भोजन छोड़ देते हैं। (येन रात्रि भोजनं कृतं ) जिसने रात्रि भोजन किया (तस्य भुक्तं न शुद्धए) उसका भोजन शुद्धिके लिये नहीं है।
विशेषार्थ-रात्रि भोजनके त्यागीको न तो रातका बनाया खाना चाहिये न रोटी पुरी आदि जिसकी मर्यादा मात्र दिनभरकी है रात्रि वासी सबेरे खाना चाहिये । भोजनकी शुद्धि भी अति। * आवश्यक वस्तु है। शुद्ध भोजन वही है जिसमें हिंसाका दोष जितना बचाया जासके बचता हो।
रात्रिका पीसा आटा व मसाला आदि न खाना चाहिये। हिंसा ब्रस जंतुओंकी बचाना बहुत जरूरी है। त्रस जंतुके कलेवरको मांस कहते हैं। ऐसा मांस अपने खाने में न आवे इसलिये रात्रिको बनाना वरात्रिको खाना उचित नहीं है। परिणामोंकी उज्वलताके लिये शुद्ध भोजन बहुत उपकारी है।
॥१९४