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________________ EM नाक्यावर R९॥ मिथ्यात्वी जीव संसारमें तीन रागी होता है, वह निरंतर इष्टका समागम चाहता है। जब इष्टका वियोग होजाता है या कोई उसके अनुकूल नहीं चलता है तो उसे महा दु:ख होता है। वह रात दिन तृष्णाकी व्याधिसे पीडित रहता है, विषयों के कारण आकुलित रहता है। इच्छा व चिंता ये ही महान दुख हैं। इच्छित वस्तुओंको मिलनेपर भी वह तृष्णाको बढाकर अधिक चाहकी दाहमें जला करता है। मिथ्यात्वीका जीवन सदा दुःखरूप रहता है। वह परलोकमें भी कष्ट पाता है। सम्यग्दर्शन परम सुखका कारण है। सम्यक्ती जीव मोक्ष पाता है। सम्यकी इस लोक व परलोक दोनों में सुखी रहता है। यहां यदि कमौके उदयसे दुःखके सामान मिलते हैं तौभी समभाव रखता है। यदि पुण्यके उदयसे सुखके सामान मिलते हैं तो उनसे वैरागी रहता हुआ उनमें रंजायमान नहीं होता है। इसीलिये इस बातकी बडी आवश्यक्ता है कि शुद्ध सम्यक्तकी रक्षा की जावे, सम्यकमें कोई दोष न लगाया जावे । मिथ्यादर्शनको भलेप्रकार त्याग दिया जावे। जिनकी संगति से विषय कषायों में 7 लीनता हो, मिथ्या पूजापाठ व रूढियों में भी जकडना पडे उनकी संगति विवेकी न करें। इसी तुसे भक्तिपूर्वक अपात्रोंको दान न करे । व्यवहार सम्यग्दर्शनके धारी पात्रों को ही भक्तिसे दान करे चाहे वे सुपात्र हों या कुपात्र अर्थात् निश्चय सम्यक्त रहित हो । परन्तु व्यवहार सम्यक्तसे शुन्य मिथ्यादृष्टीको भक्तिपूर्वक दान करना उचित नहीं है क्योंकि वहां धर्मकी पात्रता नहीं है। दया पुरिसेहरएक प्राणीको आहार, औषधि, अभय व विद्यादान करना उचित है, उसमें पात्र अपात्रका विचार नहीं है। धर्मबुषिसे मिथ्यात्वकी भक्ति हानिकारक है जिसे करना उचित नहीं है। सम्यग्दर्शनरूपी रत्नकी रक्षा करना विवेकीका कर्तव्य है। रात्रि भोजन त्याग। श्लोक-अनस्तमितं बेघडियं च, शुद्ध धर्म प्रकाशये । साधं शुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नराः ॥२९७॥ अन्वयार्थ (अनस्तमितं बेघडियं ) दो घडी सूर्यके अस्त पहले भोजन कर लेना चाहिये (शुद्ध धर्म
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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