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প্রাণ व सचालक होते हैं इसलिये उनको पहले नमन करके फिर उपाध्यायको नमन किया है, जो श्रापर
आचार्यकी आज्ञानुसार शास्त्रोंकी शिक्षा देनेका काम मुख्यतासे करते हैं। साधुगण मात्र साधन करनेवाले हैं। साधुओंसे अधिक उपकारी उपाध्याय हैं, इसलिये अंतमें साधुओंको नमन किया
गया है। इन सबमें रत्नत्रयके आतित्वकी प्रधानता है। रत्नत्रयकी पूर्णताके निकट अरहंत हैं,सिद्धोंके ४ रत्नत्रयकी पूर्णता है। शेष तीनों रस्लत्रयके अभ्यासी हैं, निश्चय रत्नश्रयरूप निर्विकल्प समाधि व
आत्मानुभवकी प्रधानताले ही ये सर्व तीन लोकके प्राणियोंसे उच्च हैं, परम पदधारी है, अतएव इंद्रादि देवोंसे नमन योग्य हैं-भवनवासी देवोंके ४०, व्यन्तर देवोंके १२, ज्योतिषियोंके चन्द्र व सूर्य, कल्पवासी देवोंके २४, चक्रवर्ती राजा व अष्टापद पशु इस तरह १००इन्द्र जिन चरणोंको पुन: पुन: नमन करते हैं इसलिये ही वे परमेष्ठी हैं।
श्लोक-अरहंतं ह्वियं कारं, ज्ञानमय त्रिभुवनस्य ।
नंत चतुष्टय सहिओ, ह्रींकारं जाण अरहंतं ॥ ३२७॥ मन्वयार्थ-(अरहत) प्रजने योग्य (हियं कारं ) ही मंत्रमें चौवीस तीर्थकर गर्भित हैं जो (त्रिभुवनस्य र ज्ञानमयं ) तीनलोकके पदाथोंका ज्ञाता हैं ( अनंत चतुष्टय सहिमो) और अनंत चतुष्टय सहित हैं इसलिये ४ (हींकारं जाण अरहंतं ) ही में अरहंतोंको गभित जानना चाहिये।
विशेषार्थ-हीं में हच र अक्षरोंकी प्रधानतासे र सेरह से ४ इसलिये बांई तरफसे जोडनेसे २४ तीर्थंकरोंका बोध होता है। परमोपकारी धर्मोपदेशक व धर्म प्रचारक होनेके कारण भरत व ऐरावत क्षेत्रमें हरएक अवसर्पिणी व उत्सर्पिणी कालकी किरणमें चौवीस चौवीस तीर्थकर होते
रहते हैं। जब धर्मका लोपसा व धर्ममें अंधकारसा छा जाता है तब एक दूसरेके बहु काल पीछे ७ तीर्थकर होते हैं जो जीवन पर्यंत धर्मबोध देते हुए विहार करते हैं। जिनके समवसरणमें बारह
प्रकारकी सभाएं होती है जिनमें प्रत्येक में अलग २ भवनवासीकी देवी, व्यंतरोंकी देवी, ज्योतिषि१ चोंकी देवी, स्वर्गवासी देवोंकी देवी, भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिषी देव, स्वर्गवासी देव,४
मुनिगण, आर्थिकागण, मानव तथा पशु विराजते हैं जिनका उपदेश हरएक मानव व सैनी पंचे. द्रिय पशु व हर प्रकारका देव सुन सक्का है, जहां किसीको जानेकी रुकावट नहीं है। जो तीर्थकर