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कारणवरण
श्रावकर
१३१७॥
भावार्थ-जो कोई अपवित्र शरीरसे भिन्न अपने आत्माको शुद्ध अनुभव करता है वह V अविनाशी आनन्दमें लीन होता हुआ सर्व शास्त्रोंको जानता है। जिमवाणीका सार मात्र एक समयसार रूप परिणाम है। ___ श्लोक-देवं गुरुं विशुद्धं, अरहन्तं सिद्ध आचार्य ।
उवझायं साधु गुणं, पंच गुणं पंच परमेडी ॥ ३२६ ॥ अन्वयार्थ-(विशुद्ध देवं गुरुं) वीतराग देव व वीतरागी गुरु (अरहंत सिद्ध आचार्य, उवझायं साधु गुणं) १ अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुणवान हैं (पंचगुणं ) ये पांच गुणी आत्माएँ (पंच परमेट्ठी) पांच परमेष्ठी कहलाती हैं।
विशेषार्थ—जैनों में ३५ अक्षरी णमोकार मंत्र प्रसिद्ध है उसमें इस लोकमें सर्व अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय तथा साधुको भाव पूर्वक नमस्कार किया गया है। वही भाव यहांपर भी बताया है कि जगतमें जितने महान पद हैं उन सबमें श्रेष्ठ शुद्ध गुणोंके धारी ये पांच ही परम पद हैं उनमें अरईस सिद्ध तो वीतराग देव हैं तथा शेष तीन आचार्य, उपाध्याय और साधु परम गुरु हैं। इनकी हर भक्ति परम पदकी परम्पराका कारण है।
इनके इस क्रमसे करनका प्रयोग यह है कि जिनसे साक्षात् विशेष उपकार होता है उनका नाम पहले लिया गया है। परमात्माको पहले नमन करना चाहिये फिर अंतरात्माको, इस हेतु अरहंत सिद्ध परमात्माको नमन करके फिर तीन अंतरात्माको नमन किया है। यद्यपि सिद्ध भगवान आठों कर्म रहित महान हैं उनको पहले नमन करना चाहिये तथापि जगत जीवोंका उपकार उनकी अपेक्षा अरहंत परमात्मासे विशेष होता है, अरहंत दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश करते हैं क्योंकि वे शरीर सहित हैं सिडके शरीर न होनेसे उपदेशकपनेका अभाव है, अरहंत हीकी वाणीसे सिद्धोंका ज्ञान होता है ऐसा उपकार विचारकर पहले अरइंतोंको फिर सिद्धोंको नमस्कार किया गया है क्योंकि आचार्यादि तीनों अंतरात्मा भी अरहत सिद्धकी भक्ति करके ही अपनी उन्नति करते हैं इसलिये अरहंत सिडके पीछे ही उनको नमन किया गया है, उन तीन अंतरात्माओंमेंसे सर्वोचपदधारी व सबसे अधिक उपकारक आचार्य हैं जो संघके नायक, दीक्षा शिक्षा दाता, संरक्षक