SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सबेरे, दोपहर, सांझ व मध्यरात्रि इस तरह २४ घंटे में चार दफे प्रत्येकमें छः छः घडी पर्यंत धर्मोपपाहणवरण देश लगातार देते हैं। विशेष पुरुषके प्रश्नवश अन्य समय में भी उपदेश प्रदान करते हैं, जिनकी छ श्रावकार १३१९॥ वाणीको सुनकर अनेक गृहस्थ मुनि, अनेक श्रावक व्रतधारी, अनेक देव, मानव, पशु सम्यग्दृष्टी होजाते हैं, सुखशांतिका परम लाभ कर लेते हैं। जो स्वयं अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, व अनंत वीर्यके धनी हैं ऐसे अरहंतों के स्वरूपका चितवन व मनन ही मंत्र द्वारा करना.योग्य है। श्लोक-सिद्धं सिद्ध ध्रुवं चिंते, ॐ वंकारं च विंदते। मुक्तिं च ऊर्द्ध सद्भावं, ऊद्ध च शाश्वतं पदं ॥ ३२८॥ अन्वयार्थ (सिद्ध सिद्ध ध्रुवं चिते) सिद्ध भगवानको ऐसा विचारे कि वे सिद्ध ध्रव हैं (ॐवंकारं च विंदते) ॐ शब्दसे जिनका अनुभव होता है (मुक्तिं च ऊद्धं समावं ) जो मुक्तिमें तीन लोकके ऊपर अग्रभागमें तिष्ठे हैं (ऊई च शाश्वतं पदं) जो श्रेष्ठ अविनाशी पदके धारी हैं। विशेषार्थ-यहां सिद्ध भगवान के स्वरूपको झलकाया है कि वे सिख हैं क्योंकि उन्होंने जो साधन योग्य कार्य आत्माकी शुद्धि करनेका था उसको साध लिया है, उनको अब कुछ करना नहीं रहा, ये कृतकृत्य होगए हैं तथा वे ध्रुव हैं अब उनकी स्वाभाविक अवस्था कभी वैभाविकरूपन होगी। वे कभी भी संसारी न होंगे, उनका कभी आवागमन न होगा। वे निश्चल अपने प्रदेशों में भी पुरुषाकार जैसे मोक्ष जाते समय शरीरमें थे वैसे विराजमान रहते हैं इसलिये • ध्रुव हैं, यद्यपि द्रव्यके स्वरूपकी अपेक्षा उनमें भी स्वाभाविक परिणमन अगुरुलघु नामा गुणके द्वारा जल में सूक्ष्म कल्लोलवत् प्रति समय हुआ करता है परंतु वह सदृश स्वाभाविक परिणमन कोई मलीनता पैदा नहीं करता है। स्वभावकी ध्रुवताको नहीं मिटाता है इसलिये सिद्ध भगवान ध्रुर हैं। ॐ शद द्वारा जिनका ध्यान किया जाता है। यद्यपि ॐ में पांचों परमेष्ठी गर्मित हैं तथापि शुद्ध निश्चय न्यसे उनमें शुद्ध आत्मा स्वरूपके झरकानेकी प्रधानता है इसलिये ध्यातागण ॐ के भौहोंके बीच, हृदयकमल व मस्तक आदिपर चमजता हुआ विराजमान करके उसपर चित्तको रोककर फिर सिद्ध स्वरूपमें चले जाते हैं। व सिद्ध भगवान लोकके अग्रभाग तनु वातवलयमें सबसे ऊपर सिद्धक्षेत्र विनमान हैं। उनका पद सबसे ऊंचा
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy