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________________ II गुरु मानोगे । जैसे हंसनिका सद्भाव अवार कहा है भर हंस दीसते नाही, तो और पक्षीनिकों ।। काश || तो हंसपना मान्या जाता नाहीं । तैसें मुनिनिका सद्भाव अबार कह्या है। अर मुनि दीसते | नाहीं, तो औरनिकों तो मुनि मान्या जाय नाहीं । बहुरि वह कहै हैं, एक अक्षरका दाताकों ।। गुरु माने हैं। जे शास्त्र सिखावें वा सुनावें, तिनकौं गुरु कैसे न मानिए, ताका उत्तर, गुरु नाम बड़ेका है । सो जिस प्रकारकी महंतता जाकै संभवै, तिस प्रकार ताकौं गुरु| संज्ञा संभवे । जैसें कुल अपेक्षा मातापिताकौं गुरुसंज्ञा है, तैसें ही विद्या पढ़ावनेवालेकों विद्या अपेक्षा गुरुसंज्ञा है । यहां तो धर्मका अधिकार है। तातें जाकै धर्मअपेक्षा महंतता संभवे, ।। | सो ही गुरु जानना । सो धर्म नाम चारित्रका है । 'चारित्तं खलु धम्मो' ऐसा शास्त्रविर्षे कह्या ।। है । तातें चारित्रका धारकहीकों गुरुसंज्ञा है। बहुरि जैसे भूतादिकका नाम भी देव है, तथापि यहां देवका श्रद्धानविर्षे अरहंतदेवहीका ग्रहण है । तैसें औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि श्रद्धानविषे निर्मथहीका ग्रहण है । सो जिनधर्मविर्षे अरहंत देव निरग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध| वचन है। यहां प्रश्न-जो निग्रंथविना और गुरु न मानिए, सो कारण कहा। ताका उत्तर निग्रंथविना अन्य जीव सर्वप्रकारकरि महंतता नाही धरै हैं । जैसें लोभी शास्त्रव्याख्यान | । करे, तहां वह वाकौं शास्त्र सुनावनेंतें महंत भया । वह वाकों धनवस्त्रादि देनेते महंत भया । । यद्यपि वाह्य शास्त्र सुनाधनेवाला महंत रहै, तथापि अंतरंग लोभी होय, सो दाताको उच्च माने। २८२
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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