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मो.मा. प्रकाश
स्वयमेत्र ही सिद्धि होइ रही है । इसहीका विशेष दिखाइए है—वेदनियविषै असाताके उद| यतै दुखके कारन शरीरविषै रोग क्षुधादिक होते थे। अब शरीर ही नाहीं तब कहां होय । अर शरीर की अनिष्ट अवस्थाक कारन आतापादिक थे सो अब शरीर विना कौनकौं कारन होय ? अर बाह्य अनिष्ट निमित्त बनै था सो अब इनिकै अनिष्ट रह्या नाहीं । ऐसें दुखका कारनका तौ अभाव भया । बहुरि साताके उदयतै किंचित् दुख मेटनेके कारन औषधि भोजनादिक थे तिनिका प्रयोजन रह्या नाहीं । अर इष्ट कार्य पराधीन रह्या नाहीं तातैं बाह्य भी मित्रादिककौं इष्ट माननेका प्रयोजन रह्या नाहीं । इनिकरि दुख मेट्या चाहै था वा इष्ट किया चाहे था सो अब संपूर्ण दुख नष्ट भया अर संपूर्ण इष्ट पाया । बहुरि आयुके निमित्त मरण जीवन था तहां मरणकरि दुःख मानें था सो अविनाशी पद पाया तातें दुखका कारन रह्या नाहीं । बहुरि द्रव्य प्राणनिकों घरें कितेक काल जीवने मरनेते सुख मानै था तहां भी नरकपर्यायविषै दुखकी विशेषताकरि तहां जीवना न चाहै था सो अब इस सिद्धपर्यायविषै द्रव्यप्राण बिना ही अपने चैतन्य प्राणकरि सदाकाल जीवै है । अर तहां दुखका लवलेश भी न रह्या है । बहुरि नामकर्मतें अशुभ गति जाति आदि होतें दुख मानै था सो अत्र तिनि सबनिका अभाव भया, दुख कहांत होय ? अर शुभगति जाति आदि होते किंचित् दुख दूरि होनेते सुख मानै था, सो अब तिनि विना ही सर्व दूखका नाश अर सर्वसुखका प्रकाश पाई
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